Saturday, February 27, 2010

अजय घोष और उनका युग

 अजय घोष 
और उनका युग
 आनन्द गुप्त
    भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
  




विषय-सूची

भूमिका        3
सशस्त्र  क्रान्तिकारी        7
‘कामरेड’  अजय  घोष        14
अन्तर्राष्ट्रीय  कम्युनिस्ट  नेता    24
अजय घोष की याद में        29
परिशिष्ट       
हमारी  कुछ  मुख्य कमजोरियाँ    ...अजय  घोष    34
‘फॉर ए लास्टिंग पीस फार ए पीपुल्स डेमोक्रेसी के संपादकीय से     47





सशस्त्र क्रान्तिकारी

सादगी, शालीनता, एकाग्रता और सबको साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति कुछ ऐसे गुण थे जो अजय घोष में जन्मजात थे। उनको कभी लफ्    फ    ाजी करते हुए नहीं सुना, कभी नाराज होते हुए नहीं देखा, हमेशा तर्कपूर्ण बात करते थे। दूसरों की बात हमेशा ध्यान से सुनते थे, लगता था जैसे कुछ समझने की कोशिश कर रहे हों और अक्सर अपनी बात समझा कर ही  संतुष्ट  होते  थे।
मुझे गर्व है कि मैं दिल्ली में पार्टी मुख्यालय ब्रांच का सदस्य था और मैंने अजय
घोष के हस्ताक्षर किये हुए पार्टी कार्ड को यादगार के तौर पर आज भी संजो कर रखा हुआ  है।

पारिवारिक  पृष्ठभूमि
आम प्रथा  के  अनुसार किसी के  बारे  में  लिखते  हुए  या बोलते  हुए  आप कहते हंै    कि उन महानुभाव को मैं कबसे जानता हूं या उनका जन्म कहां और कब हुआ तो मैं आपको बता दूं कि अजय घोष का जन्म 20 फरवरी 1909 को मिहजम में हुआ जहां अजय नाम की  एक नदी है। उनके बाबा ने उस नदी के नाम पर ही उनका नाम अजय रख दिया और अजय घोष ने अपने बाबा के दिये हुए नाम को पूर्ण रूप से चरितार्थ  किया। वह  अपने जीवन में  लम्बी  भूख  हड़ताल,  बीमारी  और  अनेक बाधाओं  के  बावजूद  अपराजित  (अजय) रहे।
अजय घोष के पिता का नाम शचीन्द्र नाथ घोष (जो पेशे से डाॅक्टर थे) और माँ का नाम सुधान्शु बाला था; अजय चार भाई और दो बहन थे। अजय ने इलाहाबाद से बी.  एससी पास  किया था।


क्रान्तिकारी



अपने लिये जिये तो  क्या  जिये,
तू  जी  ए दिल  जमाने के  लिए।

ऊपर की लाइनों के अनुसार तो असल में अजय घोष का जन्म उस दिन हुआ जिस दिन वह 1924 में, कानपुर में, जबकि वह अभी स्कूल में ही पढ़ रहे थे, उनकी


मुलाकात  भगत  सिंह से  हुई।  दोनों  ने  अंग्रेजी  सरकार को  उखाड़  फेंकने  के  लिए
शस्त्रों के प्रयोग की योजना बनाई। 1921-22 के कांग्रेस के असहयोग आन्दोलन के दौरान चैरीचैरा में हुई हिंसक घटना के बाद महात्मा गांधी द्वारा आन्दोलन वापस लेने पर नौजवान देशभक्तों में मायूसी छा गई। राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन केे विभिन्न
रूप सामने आने लगे। दक्षिण में लेबर-किसान पार्टी, पंजाब और उत्तर भारत में वर्कर्स
एण्ड पीजे     न्टस् पार्टी और सशस्त्रा क्रान्ति के लिये हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन
एसोसिएशन बन गईं।  1925  में  कम्युनिस्ट  पार्टी  बन गई।  देश  की  जनता  ने  असहयोग की राजनीति को छोड़कर जल्द  आजादी प्राप्त करने के लिये क्रान्तिकारी आन्दोलन  को  बल देने  के  लिए जन संगठन  बनाने  शुरु  कर दिये।
अजय  घोष  हिन्दुस्तान  सोशलिस्ट  रिपब्लिकन  एसोसियेशन में  शामिल हो  गये और  भगत  सिंह  और  चन्द्रशेखर  आजाद  आदि के  साथ  काम करने  लगे।  अनेक जगहों पर क्रान्तिकारी घटनाएं हुईं। 1925 में काकोरी में ट्रेन से खजाना लूटा गया, देश  भर  में  साइमन कमीशन  का विरोध  हुआ,  लाहौर  में  20 अक्टूबर  1928  को साइमन का विरोध करते हुए लाठी चार्ज में घायल होने के कारण 17 नवम्बर 1928 को लाला लाजपत राय शहीद हो गए। लाहौर में ही 28 नवम्बर को साँडर्स को गोली से मारा गया जो दूसरे लाहौर षड्यंत्रा केस के नाम से जाना जाता है। 20 मार्च 1929 को सरकार ने देश भर से 32    कम्युनिस्ट और अन्य देशभक्तों को पकड़ कर मेरठ   में लाकर बन्द कर दिया। 9 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केन्द्रीय असेम्बली  में मजदूर विरोधी बिल के पेश करने  के कारण  असेम्बली में बम फेंका।
23 दिसम्बर 1929 को दिल्ली में वायसराय की गाड़ी उड़ाने का प्रयत्न किया गया।
18 अप्रैल 1930 को चिटगांव में शस्त्रागार लूटा गया। मतलब  यह कि देश भर में
क्रान्तिकारी आन्दोलन जोरों पर था और इन्कलाब-जिन्दाबाद का नारा गूंज रहा था।
यतीन्द्र नाथ दास कलकत्ता से बम बनाना सिखाने के लिये लाहौर आये लेकिन कुछ  ही  दिन  बाद इस बम बनाने  की  फैक्ट्री  का सरकार को  पता चल गया और सुखदेव और किशोरी लाल सहित बहुत से साथी पकड़े गये। इनमे से दो हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन की सेन्ट्रल कमेटी के सदस्यों सहित सात साथी सरकारी गवाह  बन गये।

पहली जेल यात्रा
असेम्बली बम कांड में सोची समझी चाल के अनुसार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त
यद्यपि बचकर भाग  सकते थे  किंतु  उन्होंने  अपने आप को  गिरफ्    तार करवाया।
उन्होंने बम फेंकने का उद्देश्य बताते हुए एक पर्चा भी हाल में फेंका था जो ‘लाल


पर्चे’ के नाम से मशहूर है। बहुत से क्रान्तिकारी पकड़े गये। 1929 की जून में अजय
घोष भी पकड़े गये। 10  जुलाई 1929 को दूसरा लाहौर षडयंत्रा केस शुरु हुआ; शुरु में तेरह  साथियों  को  पेश किया गया। राजगुरु और  विजय  कुमार  सिन्हा  केस की कार्यवाई  के  दौरान  पकड़े  गये थे।
असेम्बली बम कांड  केस में  भगत  सिंह  और  बटुकेश्वर  दत्त  को  आजन्म कैद की सजा  हुई।  दूसरा  लाहौर  षड्यंत्रा  केस चलता रहा।
पुलिस और  जेल और  वह भी  अंग्रेजों  के  जमाने की और  राजनैतिक बन्दियों के  लिये  और  वह भी  सशस्त्रा  क्रान्तिकारियों  के  लिये  यह वही  जानते  हैं  जिन्होंने  उसको भुगता है। भेद उगलवाने के लिये भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को इतना मारा और सताया कि उन्हें कोर्ट में स्ट्रेचर पर लाया गया। वैसे भी वह सभी साथियों के लिये जेल में एक ही श्रेणी, अच्छा खाना, अखबार और लिखने-पढ़ने की सुविधा की मांग को लेकर भूख हड़ताल पर थे। अजय घोष सहित बाकी सभी साथियों ने  भी भूख हड़ताल शुरु कर दी।

जेल और भूख हड़ताल
भूख  हड़ताल  क्या होती  है?  10 दिन तक तो  जेल अधिकारियों ने  परवाह ही  नहीं की। उसके  बाद हड़तालियों  को  जेल अस्पताल में  भेज  दिया।  जबरदस्ती  नाक में  नली डाल कर दूध आदि देना शुरु किया गया। भूख हड़ताल करने वालों ने विरोध किया। किशोरी लाल ने पिसी हुई मिर्च खा लीं जिससे  गला सूज जाये, नली अन्दर जा ही न सके। अजय घोष ने मक्खियाँ खा लीं जिससे पेट में गया हुआ सारा पदार्थ  उल्टी में निकल जाये। अधिकारियों ने पानी के बदले घड़ों में दूध रख दिया जिससे इन लोगों  के  पेट  में  कुछ  चला  जाये। लेकिन जेल अधिकारियों  की  एक न चली। मुकदमा स्थगित  हो  गया। बन्दियों  की मांग  और  भूख  हड़ताल  के  समर्थन  में  देश भर  में  आन्दोलन  शुरु  हो  गए। बम्बई  में  हड़ताल  हुई।  मेरठ  जेल में  मेरठ  षड्यंत्रा  केस के सभी साथियों ने भूख हड़ताल कर दी। भारत की जेलों में बन्दियों के साथ दुव्र्यवहार  का  समाचार लन्दन  तक पहुंचा  और  सरकार को उनकी  मांगों पर विचार करने  के लिये एक जनप्रिय कमेटी बनानी पड़ी। कमेटी ने भूख हड़ताल करने वाले साथियों के साथ बातचीत की और अधिकतर मांगों पर विचार करने का आश्वासन  दिया। हड़ताल वापस लेने का फैसला हुआ। परन्तु यह सब होते-होते बहुत देर हो  चुकी  थी।  यतीन्द्रनाथ  दास और  अनेक साथियों  की भूख  हड़ताल  को  63 दिन हो  चुके  थे।  यतीन्द्रनाथ  दास इस कमेटी  का  यह प्रस्ताव  सुनने  के  लायक  भी  नहीं  थे   और  बोल  भी  नहीं  सकते थे।  13 सितम्बर 1929  को  वह शहीद  हो  गये।  जेल


अधिकारी भी अपने आंसू रोक नहीं सके। शव जिस समय जेल के गेट पर जनता
को सौंपा गया तो लाहौर के पुलिस सुपरिन्टेंडेन्ट हेमिल्टन हार्डिंग ने सर से टोप उतार कर और  झुक  कर शव को  विदा  किया। यतीन्द्रनाथ  दास जो  स्वयं  कभी  ब्रिटिश साम्राज्य के सामने झुका नहीं उसने आखिर में उसे मात दे दी।1  पर हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को जब यह पता चला तो उन्होंने कहा कि ‘‘उनका लक्ष्य अच्छा होते  हुए  भी  जो  तरीका उन्होंने  अपनाया वह  ठीक नहीं  था।  उसने  सूई  के  लिये सोना दिया।’’2  सारा देश जानता है कि यतीन्द्रनाथ दास ने सूई प्राप्त की या कुन्दन बन कर उजागर हुआ।
यतीन्द्रनाथ  दास की शहादत के  अगले दिन कमेटी  के  आश्वासन के  अनुसार अजय घोष और अन्य साथियों ने अपनी भूख हड़ताल तोड़ी। कमेटी की सिफारिशों को पूरी तौर पर अमल में नहीं लाया गया। अपनी सारी मांगों को मनवाने के लिये कम से कम दो बार और हड़ताल करनी पड़ी। मुकदमा चल रहा था। 21 जनवरी
1930 को लेनिन दिवस पर (उन दिनों हम लेनिन का मृत्यु दिवस मनाते थे) भगत सिंह और उसके साथी लाल रुमाल बांधकर कोर्ट में आये। उन्होंने सबसे पहले राम प्रसाद  बिस्मिल  का  ‘सरफ    रोशी  की  तमन्ना  अब  हमारे  दिल  में  है’  गाया  और समाजवादी  क्रांति    जिन्दाबाद!  कम्युनिस्ट  इन्टरनेशनल    जिन्दाबाद!  लेनिन    अमर रहे!  जनता की जय!  सम्राज्यवाद    मुर्दाबाद!  के  नारे  लगाये।
इसके बाद उन्होंने थर्ड इन्टरनेशनल को भेजने के लिये कोर्ट को निम्नलिखित
संदेश  दिया :
‘लेनिन दिवस पर हम उन सब लोगों का जो महान लेनिन के विचारों को आगे बढ़ाने के लिये कुछ कर रहे हैं अभिवादन करते हैं। रशिया जो प्रयोग कर रहा है,  हम उसकी सफलता की कामना करते हैं। हम अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग के आन्दोलन के साथ  हैं।  मजदूर  वर्ग  विजयी  होगा!  पूंजीवाद  की पराजय  होगी!  साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!’3
7 अक्टूबर  1930 को दूसरा  लाहौर  षड्यंत्रा  केस खत्म  हुआ  और  सजाएं सुना दी  गईं।  भगत  सिंह,  राजगुरु  और  सुखदेव  को  फांसी,  सात साथियों  को  आजन्म कारावास और  अन्य को  लम्बी-लम्बी  सजाएं हुई।  अजय  कुमार  घोष  को  सबूत न होने के कारण और सरकारी गवाह  के न आने के कारण देसराज और यतीन्द्रनाथ सान्याल के साथ छोड़ दिया गया। अजय घोष को लगा जैसे उन्होंने अपने साथियों का परित्याग  कर दिया  हो।  दरअसल  उन  दिनों  स्पर्धा  यह  होती  थी  कि देश  के लिये    चाहे भूख हड़ताल हो या फांसी कौन पहले शहीद हो। अजय घोष को लगा जैसे  वह अपने दूसरे  साथियों  से पीछे  रह गये।


सशस्त्रा कार्रवाइयों का परित्याग
साँडर्स  की हत्या  ने,  दिल्ली  में  असेम्बली में  बम फेंकने  के  कांड  ने  बहरों  को  सुना दिया था कि यह देश मुर्दों का देश नहीं है। और हमारे देशभक्त साथी, क्रान्तिकारी नौजवान यह भी समझ गये थे कि यहां-वहां कुछ भेदियों और सरकारी अफ    सरों की वैयक्तिक  हत्याओं  से लक्ष्य की प्राप्ति  नहीं  हो  सकती है।
फांसी से दो महीने से भी कम पहले 2 फ    रवरी  1931 को भगत सिंह नेे ‘युवा राजनैतिक कार्यकर्ताओं के नाम’ एक अपील लिखी थी जिसमें उन्होंने जनसाधारण
के  बीच काम करने के  महत्व  को  बारम्बार  रेखांकित  किया था।  उन्होंने  कहा था,
‘‘गांवों  और  कारखानों  में  किसान और  मजदूर  ही  असली क्रान्तिकारी  सैनिक हैं।’’  इसी अपील  में  भगतसिंह  ने  बलपूर्वक  इस बात से इनकार किया था  कि वे  आतंकवादी हैं। उनका कहना था, ‘‘मैंने एक आतंकवादी की तरह काम किया है।  लेकिन मैं  आतंकवादी  नहीं  हूं।  मैं  तो  ऐसा  क्रान्तिकारी  हूं  जिसके पास एक लम्बा कार्यक्रम और उसके बारे में सुनिश्चित  विचार होते हैं। मैं पूरी ताकत के साथ बताना चाहता हूं कि मैं आतंकवादी नहीं हूं और कभी था भी नहीं, कदाचित  उन कुछ दिनों  को छोड़कर जब मैं अपने क्रान्तिकारी जीवन की शुरुआत कर रहा था। मुझे विश्वास है कि ऐसे तरीकों से कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं।’’ उन्होंने नौजवान राजनैतिक कार्यकर्ताओं को सलाह दी कि वे माक्र्स और लेनिन का अध्ययन करें, उनकी शिक्षा को  अपना मार्गदर्शक  बनाएं,  जनता के  बीच  जाएं, मजदूरों,  किसानों  और  शिक्षित मध्यवर्गीय नौजवानों के बीच काम करें, उन्हें राजनैतिक दृष्टि से शिक्षित करें, उनमें  वर्ग-चेतना  उत्पन्न  करें,  उन्हें यूनियनों में संगठित करें,  आदि।  उन्होेंने  नवयुवकों से
यह भी कहा कि यह सारा काम तब तक सम्भव नहीं है जब तक जनता की एक अपनी पार्टी न हो। वे किस तरह की पार्टी चाहते थे इसका खुलासा करते हुए उन्होंने लिखा था,  ‘‘हमें  पेशेवर  क्रान्तिकारियों  की  जरूरत  है    यह शब्द  लेेनिन  को  बहुत  प्रिय था    पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की, जिनकी क्रान्ति के सिवा और कोई आकांक्षा न हो,  और न जीवन का कोई दूसरा लक्ष्य हो। ऐसे कार्यकर्ता जितनी बड़ी संख्या में एक पार्टी  के रूप में संगठित होंगे, उतनी ही तुम्हारी सफलता की सम्भावनाएं बढ़ जायेंगी।4
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी से भी पहले 27 फ     रवरी 1931 को किसी मुखबिर  के  बताने  पर चन्द्रशेखर  आज     ाद  को  जिन्हें  सितम्बर 1928  में   हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन की सशस्त्रा यानि  फ    ौजी गतिविधियों का औपचारिक रूप से कमांडर-इन-चीफ    बनाया गया था, एलफ्रेड पार्क इलाहाबाद में एक पुलिस एंेकाउंटर में मार डाला गया। इसमें दो पुलिस वाले भी घायल हुए।
यह सशस्त्रा  गतिविधियों  की बात मैं  इसलिये कर रहा हूँ  कि बहुत  से लोग  कभी
रिपब्लिकन   ‘एसोसियेशन’ कह देते  हैं  कभी  ‘आर्मी’।


गांधी और सशस्त्रा क्रान्तिकारी
कांग्रेस  राष्ट्रीय  स्वातंत्राीय  संग्राम  की मुख्य धारा  थी।  नमक कानून  तोड़ने,  विदेशी माल का  बहिष्कार करने के आन्दोलन के बाद गांधी-इर्विन समझौते की बातें चल रही थीं। राजनैतिक बन्दियों की रिहाई की मांग मात्रा फूल माला डलवा कर जेल जाने वाले सत्याग्रहियों के लिये थी सशस्त्रा क्रान्तिकारियों के लिये नहीं थी। जनता भगत सिंह और अन्य साथियों की रिहाई की मांग कर रही थी। गांधी जी भगत सिंह के बारे में तरह-तरह की बात करते थे। इर्विन से रिहाई की बात भी करते थे और साथ ही यह भी कहते थे कि ‘मैं पक्की तौर से कह सकता हूँ कि उसका  दिमाग खराब हो गया है’5। गांधी जी ने आगे कहा ‘मैं स्वयं उसको (भगत सिंह) रिहा कर देता पर मैं किसी सरकार से ऐसा करने की आशा नहीं कर सकता’6। उन्होंने एक बार इर्विन से कहा ‘अगर आप इस बात का उत्तर भी न दें तो मैं बुरा नहीं मानूंगा’7। कराची के  कांग्रेस  सम्मेलन में  उन्होंने  कहा ‘भगत  सिंह जीना  ही  नहीं  चाहता था,  न उसने माफ    ी मांगी और न ही सजा के खिलाफ    अपील की’8। भला सोचिये अगर माफ    ी ही मांगनी होती तो वह यह सब करता ही क्यों। भगत सिंह ने तो कहा था
‘मैंने सरकार के खिलाफ    युद्ध किया है,  मुझे फांसी  नहीं गोलियों से उड़ाओ’।  भगत सिंह की बम की राजनीति और गांधी का अहिंसात्मक आन्दोलन यद्यपि
राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन की अनेक धाराओं में से दो थीं, परन्तु गांधी को यह सहन
नहीं था। उन्होंने डांडी मार्च से पहले 6 मार्च 1930 को अंग्रेज वायसराय लार्ड इर्विन को लिखा था ‘भारत को शस्त्रा द्वारा आजाद कराने वाली एक शक्ति भारत में पैदा हो गई है, और संगठन न होने पर भी वह बढ़ रही है। इसका और मेरा उद्देश्य एक ही  है लेकिन मेरा  विश्वास है कि शस्त्रा  द्वारा  भारत  का कल्याण  न होगा।  मेरा  तो विश्वास है  कि ब्रिटिश  सरकार  की हिंसा  को  पूर्ण  अहिंसा  ही  रोक  सकेगी।  मुझे  अनुभव ने बताया है कि निःशस्त्रा सत्याग्रह में बड़ी ताकत है। मैं इस अमोध शस्त्रा
द्वारा ब्रिटिश सरकार की भीषण हिंसा और भारतीय क्रान्तिकारियों के खूनी उपायों  दोनों का ही विरोध करना चाहता हूं। यदि मैं आलस्य करता हूं तो यह दोनों ताकतें प्रबल  हो  जायेंगी’।9
मार्च  1931 में  वह यह कैसे  चाहते  कि भारतीय  क्रान्तिकारियों  का आन्दोलन सफल हो। भगत सिंह यह सब समझते थे। उन्होंने फांसी से 20 दिन पहले 3 मार्च
1931  को अपने छोटे भाई कुलबीर को लिखा था ‘... तुम्हारे बारे में सोचकर मेरी
आंखों में आंसू आ रहे हैं; लेकिन क्या किया जा सकता है? हौसला रख मेरे अजीज!  मेरे प्यारे भाई, जिन्दगी बड़ी सख्त है और दुनिया बड़ी बेरहम। लोग भी बहुत बेरहम हैं।     ...’10
‘दुनिया  बड़ी  बेरहम’  लिख कर भगत  सिंह को तसल्ली नहीं हुई,  उसने लिखा


‘लोग भी बहुत बेरहम हैं’। उनका मतलब किन लोगों से था यह सोचने का विषय
है।  4  मार्च  1931  को  गांधी-इर्विन  समझौता  प्रकाशित  हुआ  जिसमें  सशस्त्रा
क्रान्तिकारियों  का कोई  जिक्र तक नहीं  था।

अजय घोष नई राह पर
दूसरे लाहौर षड्यंत्रा केस में बरी होने के बाद अजय घोष कानपुर आ गये और लगभग डेढ़  साल  जेल में  रहने  के  बाद अपनी परिवर्तित राजनैतिक नई  समझ के  अनुसार मजदूरों में काम करना शुरु कर दिया। वह अभी तक समझ गये थे कि बिना आम जनता को जाग्रत किये और उसका समर्थन प्राप्त किये ब्रिटिश साम्राज्य से नहीं लड़ा  जा सकता। 31 दिसम्बर 1929 को  पूर्ण  स्वतंत्राता का प्रस्ताव पास करने के बाद, नमक कानून तोड़कर जिसमें मिला  कुछ भी नहीं, गांधी-इर्विन पैक्ट करके 25 मार्च से कराची में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन होना था। गांधी भगत सिंह और उसके साथियों  को  फांसी  कुछ  दिन,  अधिवेशन  के  बाद  तक  टलवाना  चाहते  थे  परन्तु सरकार ने  24 मार्च  जो  निश्चित की थी,  उससे भी  एक दिन पहले 23 मार्च  की
शाम को सवा सात बजे फांसी दे दी। शव भी नहीं दिये और चोरी छिपके उनको जला  दिया।
अजय घोष कानपुर से कराची के रास्ते में ही थे जब उनको यह दुखद समाचार मिला। वह  स्तब्ध  रह गये। सारे  देश  में  सरकार की इस करतूत की भर्तस्ना  हुई।  जलूस निकले,  जलसे हुए  और  एक नया जोश  पैदा  हुआ।
कराची कांग्रेस महासम्मेलन की स्वागत् समिति और कांग्रेसी नेताओं ने कराची में होने  वाले  महात्मा  गांधी  के  तीव्र  विरोध  की सम्भावना  को  देखते  हुए  उनको  दो  स्टेशन पहले ही ट्रेन से उतार लिया। परंतु कराची में आम लोगों ने काले झंडे लेकर
‘गांधी  वापस जाओ’  और  ‘गांधीवाद-मुर्दाबाद’  के  नारों  से उनका  बहिष्कार किया।
कम्युनिस्ट पार्टी का अधिकतर नेतृत्व तो मेरठ षड्यंत्रा केस में मेरठ जेल में बन्द
था। उन्होंने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी देने के अगले दिन 24 मार्च
1931 को मेरठ की अदालत से अनुरोध किया कि अदालत इन वीरों को फांसी दिये जाने पर  कम्युनिस्ट  बन्दियों  के  आक्रोश  को  व्यक्त करने वाला  निम्नलिखित  संदेश भेजे:
सरदार किशन सिंह ब्रैडले  हाॅल
लाहौर
‘हम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दिये जाने पर अपना रोष प्रकट
करते हैं  और  उनकी  शहादत की प्रशंसा  करते हंै’।
मेरठ जेल में बन्द साथी



‘कामरेड’    अजय    घोष



अजय घोष कम्युनिस्ट पार्टी में
कामरेड एस.जी. सारदेसाई उन दिनों (1930-31) मुख्यतः कानपुर में ही पार्टी का काम  संभालते  थे  परन्तु  अजय  घोष  की उनसे  पहली मुलाकात  कराची में हुई  थी।  वह भी  सिर्फ  दुआ-सलाम  तक।
कानपुर लौटने पर यह दुआ-सलाम कार्य क्षेत्रा में सहयोग में बदल गई। धीरे-धीरे  सारदेसाई  से घनिष्ट  सम्पर्क  और  माक्र्सवादी  साहित्य  के  गहन अध्ययन ने  अजय
घोष को कम्युनिस्ट पार्टी के और अधिक निकट ला खड़ा किया। यह उनका अडिग विश्वास बन गया कि मनुष्य का मनुष्य द्वारा शोषण अवश्य  ही समाप्त होगा और
शोषित वर्ग का सामाजिक उत्थान होगा। इन्हीं दिनों 1931 में अजय घोष विधिवत्
कम्युनिस्ट  पार्टी  में  शामिल हो  गये। इसका मुख्य श्रेय  कामरेड  एस.जी. सारदेसाई
को  जाता है।
अजय घोष 1931 में ही पकड़े गये और डेढ़ साल की सजा हुई। सारदेसाई भी  पकड़े गये थे और यह दोनों एक ही वार्ड में बन्द थे। खूब अध्ययन और वार्तालाप होता था। यह दोनों लगभग छः महीने तक साथ रहे। मार्च 1933 में मेरठ षड्यंत्रा  केस खत्म  होने  के  बाद  कुछ  साथियों  को  लम्बी-लम्बी  सजायें हुई।  पार्टी  का काम करने वाले भी कम थे। अजय घोष को पार्टी की सेन्ट्रल कमेटी में ले लिया गया और पहले कानपुर में जिला पार्टी और फिर यू.पी. में पार्टी को सुसंगठित करने का भार  सौंपा  गया।
फ    रवरी 1934 में उन्होंने आल इन्डिया टैक्सटाइल वरकर्स कांफ्रेंस में भाग लिया और फिर बम्बई और शोलापुर के टैक्सटाइल मजदूरों की हड़ताल का नेतृत्व किया।
1935  में अहमदाबाद  में टैक्सटाइल मजदूरों की हड़ताल हुई, उसमें भी अजय घोष  ने  एक  अहम रोल  अदा  किया।  मेरठ  षड्यंत्रा  केस के  जमाने से  ही  महाराष्ट्र  में   अलग-अलग विचार पनप रहे थे। रेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस बना ली गई थी। अजय
घोष  के  प्रयत्नों  से पार्टी  में  एकता कायम हुई।  जुलाई  1934  में  कम्युनिस्ट  पार्टी  गैरकानूनी कर दी गई थी। 1936 में अजय घोष को पार्टी के पोलिट ब्यूरो का सदस्य चुना गया जो  उन्होंने  जीवनपर्यन्त  निभाया।


कम्युनिस्ट:     राष्ट्र की मुख्य धारा में
कांग्रेस  स्वतंत्राता  संग्राम  की मुख्य धारा  थी  और  हम सभी  लोग  कांग्रेस  का हिस्सा थे। कांग्रेस के केन्द्रीय कार्यालय स्वराज्य भवन, इलाहाबाद में कामरेड डाॅ. के. एम. अशरफ    ,  डाॅ. ज    ैड. ए. अहमद, महम्दुज्ज    फर वगैरह सचिवों के रूप में काम करते थे।  ए.आई.सी.सी.  में  तो  देश  भर  में  अनेक कम्युनिस्ट  सदस्य थे।  1936-37  में  प्रांतीय चुनाव हुए, 18 मार्च 1937 को सात प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बनी और कम्युनिस्ट पार्टी गैरकानूनी होने के बावजूद हम लोगों को काम करना कुछ आसान हो  गया।
मजदूर  आन्दोलन  में  बढ़-चढ़  कर  भाग  लेने  के  कारण  बम्बई  प्रेसीडेंसी  की सरकार ने  एस.वी. घाटे  को  बम्बई  से निष्कासित कर दिया।  वह मद्रास  चले गये, वहां  पर उन्होंने  गैरकानूनी  पार्टी  का  गठन किया और  अंग्रेजी  मासिक ‘न्यू  एज’ निकाला जो ‘नई चेतना का सांस्कृतिक और साहित्यिक मासिक’  था। दरअसल  यह कम्युनिस्ट पत्रा ही था। यह सन् 1939 तक निकलता रहा। कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल के  सातवें  सम्मेलन में  ज्योर्जी  दिमित्रोव  का संयुक्त मोर्चे  का  विचार  प्रतिपादित  हो  चुका था। भारत में हम लोगों ने जयप्रकाश नारायण की कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के साथ मिल-जुल कर काम करना शुरु किया। 1938 के शुरु में ही बम्बई से ‘नेशनल फ्रंट’  साप्ताहिक (अंग्रेजी)  निकालना शुरु  किया। इसके सम्पादक मंडल  में  पी.सी. जोशी,  अजय  घोष,  बी.टी.  रणदिवे,  एस.ए.  डांगे,  महमूदुज्ज    फर थे  परन्तु  विशेष जिम्मेदारी  जोशी  और  अजय  घोष  की ही  थी।  अजय  घोष,  हिन्दुस्तान  सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के ‘नीग्रो जनरल’ स्वभावतः शर्मीले मिजाज के थे, बोलते कम थे,  सुनते अधिक थे वह भी पूर्ण तन्मयता  से फिर चिन्तन और मनन और फिर लेखन। वह देश में घूम-घूम कर निजी अनुभव के आधार पर ‘नेशनल फ्रंट’ में नियमित रूप से लिखते  थे।  1938 में  उनका  मुख्य  कार्य  क्षेत्रा  बम्बई  ही  रहा।
युद्ध के काले बादल मंडराने लगे थे। ब्रिटिश प्रधान मंत्राी चेम्बरलेन ने सितम्बर
1938 में  हिटलर से म्यूनिख  पैक्ट  कर लिया। अपने देश  भारत  में  राष्ट्रीय  एकता की अत्यंत  आवश्यकता थी।  1939 में  त्रिपुरी  में  कांग्रेस  अधिवेशन  हुआ।  कांग्रेस का अगला प्रेसीडेंट कौन होगा यह द्वन्द था। अजय घोष ने एक प्रमुख डेलीगेट की हैसियत से महात्मा गांधी और सुभाष चन्द्र बोस के बीच कांग्रेस की  नीति के बारे में मतभेद को कम करने और उनके बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया। सुभाष चन्द्र बोस इस अधिवेशन में रोगशय्या पर थे। अजय घोष कभी गांधी जी के पास जाते तो कभी सुभाष चन्द्र बोस के पास। और बीच में सलाह-मशविरे के लिये वामपंथियों के  कैम्प  ‘नेशनल  फ्रंट’  जाते।  साम्राज्यवाद  विरोधी  पार्टी  की    चाहे  वह कांग्रेस हो या कम्युनिस्ट पार्टी    एकता को बनाये रखने के काम में अजय घोष की


गहरी  दिलचस्पी रहती थी। इस महाधिवेशन में सुभाष बोस प्रेसीडेंट चुने गये।  वह
वामपंथियों  के  नुमायंदे  माने  जाते  थे  जबकि  महात्मा  गांधी  के  नुमायंदे  पट्टाभि सीतारमैया  की हार  हुई।
सुभाष  बोस  ने पहले से  ही  अक्टूबर  1939 में नागपुर  में साम्राज्यवाद  विरोधी
सम्मेलन  बुलाया  हुआ  था  जिसमें कम्युनिस्ट  पार्टी  की एक अहम भूमिका  थी।

देवली जेल में
3 सितम्बर 1939 को ब्रिटेन ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी और बिना
भारत के नेताओं की राय लिये भारत को भी युद्ध में घसीट लिया। कांग्रेस ने तुरन्त
1937 में बनी प्रांतीय  सरकारों को  अक्टूबर  1939 में भंग  कर दिया।  कांग्रेस  और भारतीय जनमत  ने युद्ध का विरोध किया। एक बार फिर दमन का दौर आरंभ हुआ और बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय नेता पकड़े जाने लगे। अजय घोष भी जुलाई 1940 में  लखनऊ में गुइन रोड पर स्थित एक धर्मशाला से पकड़े गये। देश भर में धर पकड़ जारी थी। अलावा  कम्युनिस्ट और  सोशलिस्टों  की कार्रवाइयों  के  कांग्रेस  का  युद्ध विरोधी  व्यक्तिगत सत्याग्रह  भी  जारी था।  संयुक्त  प्रांत  (यू.पी.)  के  अनेक शहरों  से पकड़े  गये साथी  आगरा जेल में स्थानांतरित  कर दिये  जाते  थे।  सरकार का इरादा उन सबको  (कम्युनिस्ट  और  सोशलिस्ट)  देवली  कैंप  जेल में  भेजने  का  था।  अजय
घोष, आचार्य नरेन्द्र देव, आर.डी. भारद्वाज, रमेश सिन्हा, अर्जुन अरोड़ा, सन्त सिंह
यूसुफ    और अनेक अन्य साथी आगरा जेल में थे। धीरे-धीरे टुकड़ियों में इनको देवली कैंप जेल में भेजा जाता था। 17 फ    रवरी 1941 को अजय घोष भी 13 और साथियों सहित  देवली  जेल भेज  दिये  गये।
जेल में  शुरु  में  दो  वर्ग  थे    ए. और  बी.।  ए. श्रेणी  वालों  को  कुछ  अधिक सुविधाएं  थीं।  बाद में  मात्रा  तीन कम्युनिस्टों  को  एस.ए. डांगे,  बी.टी.  रणदिवे  और सोली  बाटलीवाला  को  इन दोनों  से अलग करके रखा  गया। जेल में  लगभग  250 बन्दी थे जिनमें शुरु में ही 150 पक्के कम्युनिस्ट थे। बाद में तो कुछ जेल के अन्दर ही  और  कुछ  बाहर आकर कम्युनिस्ट  बन  गये।  जेल जीवन का मुख्य काम जेल अधिकारियों से जेल में सुविधाएं मांगना और मनवाना था। प्राथमिक आवश्यकताएं उपलब्ध  नहीं  थीं।  अखबार सेन्सर होकर,  कटा-फटा  मिलता था,  पत्रा  काली स्याही से पोते हुए होते थे, खाना खराब होता था आदि-आदि। आखिर मामला बढ़ता गया और जेल के सभी साथियों ने 22 अक्टूबर 1941 से आमरण अनशन शुरु कर दिया। अजय घोष यद्यपि अस्वस्थ थे पर पीछे कैसे रहते। कुछ साथियों को तो एक सप्ताह के अन्दर ही जेल के अस्पताल में जाना पड़ा। महात्मा गांधी ने जयप्रकाश नारायण को खत लिखकर भूख-हड़ताल समाप्त करने की अपील की जो उन्होंने सभी साथियों


से सलाह करके ठुकरा दी। सारे देश में बवेला मच गया था। नवम्बर के दूसरे सप्ताह
में  ट्रेड  यूनियन नेता,  केन्द्रीय  असेम्बली के  सदस्य एन.एम. जोशी  भूख  हड़तालियों  से मिलने के लिये जेल में गए और उनके हस्तक्षेप और प्रयास से 184 नजरबंदियों ने  18 दिन पुरानी  हड़ताल  खत्म  कर दी।  जयप्रकाश गुट  इस बात पर अड़ा  हुआ था  कि भारत  सरकार का होम  सेक्रेट्री  मैक्सवेल  लिख कर दे  कि उनकी  मांगों  पर विचार किया जायेगा।  वह उसने  नहीं  लिखा  तो  31  दिन बाद उनको  भी  हड़ताल समाप्त करनी पड़ी।
अजय घोष का स्वास्थ्य खराब हो रहा था। एक दिन एक डाॅक्टर ने अजय घोष  के  मसल्स  की  तारीफ    की  तो  उन्होंने  बताया कि वह अपने विद्यार्थी  जीवन में व्यायामशाला (जिम क्लब) चलाते थे, बाक्सिंग करते थे और उस वक्त भी वह यह सब अंग्रेज से लड़ने के लिये करते थे। एच.एस.आर.ए.  के नीग्रो जनरल  जो ठहरे। मांगों पर विचार हुआ।  ए.  क्लास वालों को दैनिक  राशन भत्ता  12 आने का मिलता था  और  बी.  क्लास वालों को यह  छः  आने का था।  बी.  क्लास वालों का दैनिक राशन छः आने से बढ़ाकर नौ आने कर दिया गया वगैरह। उनकी एक मांग
‘प्रांतीय  जेलांे  में  तबादले’  को  कार्यान्वित  करने के  लिये नज     रबन्दियों  को  उनकी प्रांतीय  जेलों में भेजा  जाने  लगा।  नतीजे के  तौर  पर 31 जनवरी 1942 को  देवली कैम्प जेल  हमेशा  के  लिये बन्द  हो  गया।

साम्राज्यवादी युद्ध से जनयुद्ध
देवली जेल के दिनों में जो सबसे महत्वपूर्ण बात हुई वह यह थी कि 21 जून 1941 को दूसरे विश्वयुद्ध का पासा ही पलट गया।  फ    ासिस्ट जर्मनी ने अचानक सोवियत संघ  पर  हमला  बोल  दिया।  पार्टी  का  अधिकतर नेतृत्व  तो  जेल में  था।  बाहर पी.सी. जोशी थे जो पार्टी के जनरल  सेक्रेट्री भी थे। भूमिगत अवस्था में किसी तरह पार्टी चला रहे थे। अन्दर तो यह सब लोग आपस में मिल सकते थे। उन्होंने बहुत दिन चिन्तन-मनन करके जिनमें प्रमुख थे    एस.ए. डांगे, बी.टी. रणदिवे और अजय
घोष एक प्रस्ताव बाहर भेजा। बहुत मुश्किल था साम्राज्यवादी युद्ध को जनयुद्ध कह
देना। अन्ततः दिसम्बर  1941  में पार्टी ने एआईएसएफ के पटना सम्मेलन में अपनी
‘पीपुल्स  वार’  की समझ को  देश  की जनता के  सामने रखा।

देवली जेल के बाद अजय घोष के काम
देवली जेल में अजय घोष का स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया था। उन्हें टी.बी. हो गई  थी।  1942 में जेल से छूटने के बाद बम्बई उन्हें रास नहीं आया। यद्यपि  पार्टी के कानूनी  साप्ताहिक  ‘पीपुल्स  वार’  मंे वह बराबर लिखते  रहे।  उन्हें   इलाज के  लिये


काश्मीर भेजा  गया। 25 मई  1943 से 1 जून  तक बम्बई  में  होने  वाली  पार्टी  की
पहली कांग्रेस में वह भाग नहीं ले सके यद्यपि उनकी गैरहाज    री मंे उन्हें सेन्ट्रल कमेटी और पी.बी. का सदस्य चुना गया। स्वस्थ होने पर उन्हें स्टेट्स पीपुल्स कांफ्रेंस, और पंजाब और काश्मीर मंे पार्टी की जिम्मेदारी दी गई। अविभाजित पंजाब पार्टी के वह सेक्रेट्री  चुने  गये।  हरकिशन  सिंह सुरजीत उन दिनों  एसिस्टेंट  सेक्रेट्री  थे।  पंजाब में  सभी  मोर्चों  पर गदर पार्टी  के  बाबे,  कीर्ति  कम्युनिस्ट,  विद्यार्थी    खूब  काम हुआ।
काश्मीर में अजय घोष ने वहां के नौजवानों को राजा के खिलाफ संघर्ष के लिये
तैयार किया और डी.पी. धर और जी.एम. सादिक जैसे साथियों को पार्टी में लाये। उन्होंने वहां के नौजवानों को उनके अधिकारों और देशभक्ति के लिये जागृत किया जिसका नतीजा हमको पाकिस्तानी हमलावरों के खिलाफ    काश्मीर की मिलीशिया के
रूप  में  देखने  को  मिला।
अजय घोष अपने व्यवहार से, विचार से बेहद प्रभावित करते थे। वह चाहे उनके लेख हों,  स्टडी सर्किल हों या रू-ब-रू वार्तालाप हों। राजनैतिक हों या वैयक्तिक। वहां पर लाहौर की एक महिला  कार्यकर्ता ने जिनका पारिवारिक  नाम  गुरशरन राय था और लिट्टो राय के नाम से जानी जाती थीं, जो उनकी बीमारी की अवस्था में उनकी देखभाल के लिये काश्मीर  भी गई थीं मोहित कर दिया और 1947 में इन दोनों ने  विवाह कर लिया। लिट्टो घोष, अजय घोष के अन्तिम दिन तक     अजय जेल में रह रहे हों या नार्थ एवेन्यू, दिल्ली में रेणु चक्रवर्ती के एम.पी. फ्लैट की बरसाती में हों   हमेशा  उनके  साथ  रहीं।  1958 में  उनके  एक पुत्रा  हुआ  जिसका नाम अमित घोष  है  और  वह इंजीनियर है।
1962 में अजय घोष की मृत्यु के बाद लिट्टो घोष पार्टी के किसी न किसी मोर्चे  पर काम करती रहीं। बहुत दिनों तक वह वल्र्ड पीस कौंसिल में एक सेक्रेट्री रहीं।  भारत  वापस आने  पर  वह 1971 से इन्डो-सोवियट  कल्चरल सोसायटी  की जनरल सेक्रेट्री  रहीं  और  आखरी  वक्त तक  जनरल  सेक्रेट्री  या वाइस प्रेसीडेंट  बनी रहीं।

पार्टी में संकीर्णतावाद
1947 में  देश  आजाद हुआ।  कम्युनिस्ट  पार्टी  ने  जिसके जनरल  सेक्रेट्री  उस समय पूरन चन्द जोशी थे, इस आजादी का  स्वागत किया। बम्बई के पार्टी मुख्यालय पर रोशनी की गई। जोशी ने कहा ‘हमने राजनैतिक  आजादी प्राप्त कर ली है, आर्थिक आजादी प्राप्त करनी है।’ थोड़े ही दिनों में पार्टी नेतृत्व के अन्दर एक दूसरा विचार उभरने लगा, इसमें कुछ दूसरे देशों के कम्युनिस्टों का भी हाथ था। उन्होंने कहा ‘यह आजादी झूठी है’, ‘जवाहरलाल  नेहरू  एंग्लो-अमरीकन  साम्राज्यवाद  का  दलाल है’,


हमारा  रास्ता  तेलंगाना  का रास्ता  है।  पी.सी. जोशी  ने  दिसम्बर  1947 में  पार्टी  के
जनरल  सेक्रेट्री के पद से इस्तीफा दे दिया जिसकी खबर उस समय साधारण पार्टी  सदस्यों तक भी नहीं पहुंची। फ    रवरी-मार्च 1948 में कलकत्ता मेें हुई पार्टी की दूसरी कांग्रेस में 1936 से 1947 तक जनरल  सेक्रेट्री रहे पी.सी. जोशी को उनके पद से हटाकर बी.टी.  रणदिवे  को  जनरल  सेक्रेट्री  चुन  लिया गया।
अजय घोष इन दिनों बीमार थे। वह पार्टी की कलकत्ता कांग्रेस में भी नहीं जा सके थे। पार्टी कांग्रेस के तुरन्त बाद देश भर में एक बार फिर कम्युनिस्टों की धर पकड़ शुरु हो गई। अजय घोष भी पकड़े गये। उन्हें यरवदा (महाराष्ट्र) जेल भेज दिया गया। पंडित नेहरू को बुरा भला, उनकी सरकार को कठपुतली और पूंजीवादी सरकार कहा गया। मिसाल के तौर पर आई. एन. ए. के सरदार मोहन सिंह ने कहा  सफेद चमड़ी वाले चले गये हैं, सफेद टोपी वाले आ गये। सरकार का दमन भी चरम सीमा पर था। गुप्तचर विभाग ने लगभग 50 कम्युनिस्ट नेताओं का  फ    ोटो सहित हुलिया छापा कि वह जहां भी मिलें पकड़ लिये जायें। इनमें निखिल चक्रवर्ती और शिवदान सिंह चैहान जैसे लोग थे। यह सरकार का अति गुप्त विश्वस्त प्रकाशन था। प्रांतों  के  पुलिस विभाग  को सरकुलर भेजा गया जिसमें  उन्हें रोज सूचना देनी थी कि कम्युनिस्टों ने कितने लोगों को  लूटा,  मारा,  कितनी जगह आग लगाई  और  कितने लोग  पकड़े  गये,  आदि।
आजादी  की पहली सालगिरह  कम्युनिस्ट  पार्टी  ने  आजादी  को  नये किस्म  की गुलामी बताकर मनाई। इस पुस्तिका के लेखक  ने भी गाजियाबाद  में कार्बन कापी
द्वारा ‘यह आज     ादी झूठी है, भूलो मत, भूलो मत’ सुर्खी वाला पोस्टर निकाल कर जेल की हवा खाई। 9 मार्च 1949 को रेलवे संगठन ने देश भर में हड़ताल का नारा दिया। हमारे इंकलाबी  साथी  लेखक हंसराज  रहबर ने  लिखा :
9 मारच को  याद है  साथी रेल  का पइया जाम करेंगे! गर है  उनकी  नीति उल्टी  हम भी  उल्टा  काम करेंगे! ठूं ठां, ठां ठां ठाम करेंगे।
देश  भर  में  पैया  तो  जाम नहीं  हुआ,  रेल मजदूर  संगठन  जाम हो  गया। 26
जनवरी 1950 को हमने देशव्यापी पैमाने पर गणतंत्रा का और संविधान का विरोध किया।  पार्टी  नेतृत्व  जेलों  में  था  और  कम्युनिस्ट  पार्टी  और  मजदूर  संगठनों  के आफि    सों पर या पुलिस के या अन्यथा ताले पड़े हुए थे।
धीरे-धीरे  पार्टी  की सदस्यता 80 हजार से घट  कर 16 हजार रह गई।


पार्टी नीति में परिवर्तन
तेलंगाना का सशस्त्रा विद्रोह और 9 मार्च 1949 को कराई जाने वाली अखिल भारतीय रेलवे हड़ताल के असफल होने और देश भर में कम्युनिस्ट पार्टी की मृतप्राय अवस्था को देखकर अजय घोष जैसे कुछ साथी जेलों के अंदर और जेलों के बाहर विचलित हो  उठे।  उन्होंने  सोचा  और  कहा ‘यह क्या हो  रहा है’।
भारतीय पार्टी के कार्यकलापों को देखकर कुछ बिरादराना कम्युनिस्ट पार्टियों ने  परिस्थिति का अवलोकन किया और अपनी राय भारतीय पार्टी को भेजी जो कुछ दिन तक तो निवर्तमान नेतृत्व ने दबा कर ही रख दीं। फिर 27 जनवरी 1950 के ‘फ    ार
ए लास्टिंग  पीस  फ    ार  ए पीपुल्स  डेमोक्रेसी’  के  अंक  में  भारतीय  परिस्थिति  पर सम्पादकीय  लेख प्रकाशित हुआ जिसने जेल के अंदर और जेल के बाहर भारतीय कम्युनिस्टों  को  सोचने  पर  मजबूर  कर  दिया।  इस  लेख  पर महीनों  तक  बहस मुबाहिसे  हुए।
अजय घोष और एस. वी. घाटे यरवदा जेल में थे, उन्होंने वहीं से जेलों में कराये जाने वाले संघर्ष जिसमें बीसियों साथिया. की जानें गईं और बाहर कराये जाने वाली
ऐसी ही गतिविधियों का विरोध किया। एस. ए. डांगे एक हैबियस पैटीशन में अप्रैल
1950 में  रिहा  हो  गये और  अजय  घोष  और  घाटे  जुलाई  में  रिहा  हुए।
भारतीय  राजनैतिक परिस्थिति  का गहन अध्ययन  और  विचार विमर्श  के  बाद अजय  घोष,  एस.  ए. डांगे  और  एस.  वी.  घाटे  ने  जिनके छद्म  नाम अंग्रेजी  अक्षर
‘पी’  से शुरू  होते  थे,  क्रमशः  प्रबोध  चन्द्र,  प्रभाकर  और  पुरशोत्तम  थे  एक डाॅकुमेंट
तैयार किया जो ‘थ्री पीज     डाॅकुमेंट’ के नाम से मशहूर हुआ।
1948  से  1950  के  मध्य  तक  पार्टी  की  जबरदस्त संकीर्णतावादी  नीति  से छुटकारा पाने में जहां और भी बहुत से कदम थे थ्री पीज     के इस मसबिदे ने जो गहन अध्ययन  के बाद विचारधारा के आधार पर तैयार किया गया था बहुत बड़ी भूमिका अदा की।

अजय घोष का योगदान
पार्टी की हालत बेहद खराब थी, अक्टूबर 1951 में कलकत्ता में हुई पार्टी की विशेष कांग्रेस  में  अजय  घोष  को  जनरल  सेक्रेट्री  चुना  गया। पार्टी  मुख्यालय कलकत्ता  से वापिस बम्बई  और  फिर दिल्ली  लाया गया।
अजय घोष ने देशवासियों की आकांक्षाओं को और उनकी शक्ति को पहचाना। उनमें एक बड़ी खूबी यह थी कि वह अपने साथियों की बातों को बहुत गौर से सुनते थे, समझते थे और फिर समझाते थे। एक बार आसफ    अली रोड, दिल्ली वाले पार्टी


मुख्यालय में उन्हें किसी विषय  पर जी.बी.  में बोलना  था,  हमारे एक साथी  ए.एन.
बल ने  जो  उसी इमारत में  स्थित  उर्दू  साप्ताहिक में  काम करते थे  उनके  आने  से पहले  उनकी  मेज पर एक प्रश्न रख दिया।  अजय  घोष  आये,  उस प्रश्न को  देखा और निर्धारित विषय पर बोलने से पहले उस साथी का शंका समाधान किया और फिर पूछा कि क्या वह  उस समाधान से संतुष्ट हैं। ए.एन. बल के ‘ना’ कहने पर अजय घोष ने कहा कि वह सभा के बाद उनसे मिलें। इन साथी को आज भी यह
घटना याद है। जो भी उनसे मिलता था, कहता था    भाई! मेरे साथ तो अजय घोष
का व्यवहार  बहुत  ही  अच्छा  था।  दरअसल  सभी  के  साथ  उनका  व्यवहार  बहुत  ही नम्र और अहंकार रहित होता था। वह किसी को भी अपने तर्कसंगत  वार्तालाप से आकर्षित  कर लेते  थे।
अजय घोष दो-ढाई साल जेल में रहने के बाद यह समझ गये थे कि समाजवाद के  लिये  संघर्ष  अपने-अपने  देश  में,  माक्र्सवाद-लेनिनवाद  के  सिद्धान्त पर चलकर ही अग्रसर होगा। हम अपनी लड़ाई के लिये दूसरे देशों की नकल नहीं कर सकते। वह जहां कहीं भी जाते थे साथियों में बजाय विरोधी विचारों के समान विचारों
के स्तर पर बात करते थे जिससे एकता का मार्ग प्रश्स्त हो। उनमें माक्र्सवादी-लेनिनवादी  समझ, अपनी पैनी दृष्टि और अधिक से अधिक साथियों को साथ लेकर चलने की
क्षमता थी।

पार्टी में पुनर्जीवन
अजय  घोष  अपने मृदुल  व्यवहार,  राजनैतिक समझबूझ और  कार्य  कुशलता  के  बूते  पर किसी तरह पार्टी को बुरी हालत से उबारने में सफल हुए। इसी क्रम में उन्होंने
एक लम्बा लेख ‘हमारी कुछ मुख्य कमजोरियां’ लिखा जो कमिनफार्म के साप्ताहिक पत्रा में 7 नवम्बर 1952 को छपा और भारत की अनेक भाषाओं में हजारों की तादाद में छपा  और पढ़ा गया।
इस लेख के समापन में अजय घोष ने लिखा है    ‘‘इसलिये  ढिलाई का मौका नहीं है; पीठ टेकने या सुस्ताने की जगह नहीं है। इसके विपरीत, हर दिशा में, हर
क्षेत्रा में, हर मोर्चे पर हमारी कोशिशें और हमारे काम को सौ गुना बढ़ जाना चाहिये और इसके लिये पार्टी की तमाम कमजोरियों को दूर करना चाहिये और आलोचना और आत्मालोचना की आग में उसे फिर से तपना चाहिये। सिर्फ इसी तरह से हम उन जिम्मेदारियों  को  पूरा  कर  सकेंगे  जो  हमारे  सामने हैं।’’
अजय घोष की इस जोशीली कार्यविधि से पार्टी में नई जान आई। जगह-जगह पार्टी दफ्    तर खुले,  प्रेस  लगाई गईं;  अखबार  निकले और  हम पूरी  शक्ति के साथ आजाद भारत के पहले आम चुनाव में कूद पड़े। चुनाव में हम कांग्रेस के बाद दूसरी


पार्टी  बनकर निकले।  लोकसभा  में  हमारे  27 साथी  चुने  गये। न केवल संख्या की
नज     र से बल्कि भारत की राजनीति पर असर डालने वाली पार्टी के रूप में। अजय
घोष ने न केवल पार्टी की आन, बान, शान को भारत की जनता के दिलों में बढ़ाया बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में भी उसे एक ऊँचे स्थान पर पहुंचा दिया।
1953 में, मदुरै में, पार्टी की तीसरी कांग्रेस में थ्री पीज     डौकूमंेट के आधार पर पार्टी
की लाइन तय  की गई।

संयुक्त मोर्चों की ओर
देवली कैम्प जेल के बाद अजय घोष अक्सर बीमार हो जाते थे। 1953 के अप्रैल-मई महीने में वह एक बार फिर बीमार हुए और ई.एम.एस. नम्बूदिरीपाद को कुछ दिन के लिये पार्टी के जनरल सेक्रेट्री का भार संभालना पड़ा। 1954 में अजय घोष को दिल का दौरा भी पड़ा।
1948-50 के संकीर्णतावादी दिनों के कटु अनुभव के बाद जिसमें न हम किसी को पूछते थे और न कोई हमको पूछता था हमने अपनी गलतियों को सुधारा और अजय  घोष  के  नेतृत्व  में  सही नीति पर आने  की कोशिश  की। सबसे पहले पार्टी  के अन्दर  एक दूसरे की बात सुनने और मिल बैठकर कोई राह निकालने की ओर कदम बढ़ाये। दूसरी पार्टियों खासतौर से कांग्रेस में हमख्याल लोगों को साथ लिया, फ    ारवर्ड ब्लाक वालों से बात की। जन मोर्चों पर और स्थानीय चुनावों में संयुक्त मोर्चा  बनाने  के  प्रयत्न  किये।
अन्तर्राष्ट्रीय  स्तर पर हमने  गुट  निरपेक्ष  आन्दोलन  में  अपना योगदान  किया।
विश्व शांति के लिये और दूसरे देशों के साथ मित्राता और एकजुटता के लिये काम करना शुरु  किया।  अजय  घोष  सोवियत संघ  के  साथ  भारतीय  कम्युनिस्ट  पार्टी  के और भारत सरकार के मित्राता और सौहार्द के सम्बन्धों पर बहुत जोर देते थे। वह भारत-चीन संबंध, बाडंुग, पंचशील और दुनिया भर की कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच बिरादराना  संबंधों  को  बढ़ाने  में  प्रयत्नशील  रहते  थे।  इन्हीं  सब कार्यकलापों  से भारतीय  कम्युनिस्ट  पार्टी  का राष्ट्रीय  और  अन्तर्राष्ट्रीय  स्तर  पर बहुत  मान बढ़ा।

केरल में कम्युनिस्ट सरकार
पार्टी या कोई भी संस्था जब बढ़ती है तो उसमें विभिन्न विचारों का, मत विरोधों का प्रादुर्भाव शुरु हो जाता है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में भी 1955 से ही कुछ मतभेद होने शुरु हो गये थे। 1956 में पार्टी की चैथी कांग्रेस में भी वह उभर कर सामने आये। परन्तु सुलझा लिये  गये। यह अजय घोष की सूझ बूझ और शक्ति ही थी।
1957 के आम चुनाव में पार्टी ने जोश खरोश के साथ हिस्सा लिया। लोकसभा में


हमारे 30 साथी चुनकर आये और हम देश में दूसरे नम्बर की पार्टी थे। प्रांतीय विधान
सभाओं  के  चुनाव  भी  साथ  ही  हुए  थे।  केरल में  एसेम्बली  में  120  सीटें  थी। कम्युनिस्ट  पार्टी  64  सीटों  पर जीती और  पूर्ण  बहुमत  प्राप्त  किया।  ई.एम.एस. नम्बूदिरीपाद मुख्य मंत्राी बने। दुनिया में यह पहला अवसर  था जब सोशलिस्ट देशों  के अलावा कहीं पर भी चुनाव में जीतकर  कम्युनिस्ट सरकार बनी हो। इस विजय के  कारण कम्युनिस्ट  पार्टी  का और  अधिक  सम्मान बढ़ा।




अन्तर्राष्ट्रीय    कम्युनिस्ट    नेता




1957 का मास्को कम्युनिस्ट सम्मेलन
1957     अक्टूबर  क्रान्ति  की  40वीं  सालगिरह का  साल था।  दुनिया  भर  में  और सोवियत संघ  में  यह समारोह  धूम-धाम  के  साथ  मनाया गया। मास्को  में  हुए  हर कार्यक्रम  में  दुनिया  भर  की  64 कम्युनिस्ट  पार्टियों  के  प्रतिनिधियों  ने  इसमें  भाग  लिया। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के सात सदस्यों का प्रतिनिधि मंडल मास्को गया था  जिसमें  अजय  घोष  के  नेतृत्व  में  एम.एन.  गोविन्दन  नायर, भूपेश  गुप्त, रविनारायण रेड्डी, मुज    फ्फर अहमद, बासवपुनैया और सोहन सिंह जोश शामिल थे।  सोवियत संघ  वालों  ने  सभी  राष्ट्रीय  पार्टियों  के  नेताओं  को  कहीं  न कहीं  सोवियत जनता को सम्बोधन  करने का अवसर  दिया।  ऐसी ही  एक सभा  में अजय  घोष  ने  सोवियत संघ की पार्टी के नेतृत्व में सोवियत संघ की उपलब्धियों की सराहना की। उसी सभा में चीन की यशस्वी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चीनी जनता की  महान क्रान्ति  का उल्लेख  भी  किया।  इस अवसर  पर एक सम्मेलन भी  हुआ  जिसमें  64 देशों  की  कम्युनिस्ट  पार्टियों  ने  भाग  लिया।  इसमें  विश्व शांति  और  अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति  पर प्रस्ताव  पास हुए।  अजय  घोष  ने  इस सम्मेलन को  विश्व के कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिये और संपूर्ण प्रगतिशील मानव जाति के लिये दूरगामी गहन महत्व का अवसर  कहा।

माओ से वार्तालाप
इस अवसर  पर अजय घोष के नेतृत्व में भारतीय डेलीगेशन अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति पर माओ के विचारों पर उनसे बात करने के लिये क्रेमलिन में जहां वह ठहरे थे, गया। माओ  ने  सम्मेलन  में  कुछ  भिन्न  विचार प्रकट  किये  थे।  यद्यपि  वहाँ  पर स्वीकृत
घोषणा पर उन्होंने दस्तखत किये थे और वह सर्वसम्मति से पास हुई थी। माओ ने
6 नवम्बर  1957  को  सुप्रीम  सोवियत के  विशेष  सत्रा को  सम्बोधन  करते हुए  कहा था कि ‘हम सभी समाजवादी देशों का परम पावन दायित्व है कि हम सब सोवियत संघ के नेतृत्व में सभी समाजवादी देशों की एकजुटता को सुदृढ़ करें’। बाद में माओ


अपने इस वक्तव्य से पलट गये और सम्मेलन में उठाये हुए अपने विचारों पर जमे
रहे।  और  यही वह विचार थे जिन्होंने बाद में चीन के सोवियत विरोध  को बढ़ावा दिया।
अजय घोष का सैद्धान्तिक स्तर, समझ-बूझ, कार्य कुशलता और दुनिया किधर जा रही है  और  क्या करना चाहिये  और  यह सब करने के  लिये एकाग्रचित  लग्न और  जनून  ने  उनके  और  भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राजनैतिक  स्तर को बहुत ऊँचाई तक  पहुंचा दिया। अजय घोष  अन्तर्राष्ट्रीय  कम्युनिस्ट  आन्दोलन  के  एक प्रमुख  नेता  माने  जाने  लगे।
ध्यान देने योग्य बात है कि दिसम्बर  1960 में हुई कम्युनिस्ट और वरकर्स पार्टियों के सम्मेलन में अजय घोष राष्ट्रीय स्वतंत्राता संग्राम के कमीशन में मसविदा तैयार करने वाली कमेटी के चेयरमैन थे। 1960 के इस सम्मेलन में यह तय हुआ कि 81 पार्टियों में से 12 पार्टियां जिनमें सीपीआई भी एक थी मिल कर अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति का आकलन करें और अन्य पार्टियों से सलाह मशविरा  करके एक और विश्व सम्मेलन  के  आयोजन  करने  के  लिये  पहलकदमी  करें।
अजय घोष ने 1955 से उभरी सीपीएसयू के विरोध पर आधारित चीनी पार्टी  की महत्वाकांशाओं को समझते हुए चीनी पार्टी के पैर पसारने की नीति का जम कर विरोध किया। 1949 की  चीनी क्रान्ति की सफलता के कारण दुनिया भर में चीनी पार्टी का रुतबा बहुत ऊंचे स्थान पर था। हिन्दुस्तान में भी पार्टी में कुछ ऐसे साथी थे जो चीनी पार्टी को श्रेष्ठ मानते थे। अजय घोष ने राष्ट्रीय स्तर पर और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी माक्र्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्तों के आधार पर चीन की इस कामना को अपने जीते जी सफल नहीं  होने  दिया।
अन्तर्राष्ट्रीय  कम्युनिस्ट  आन्दोलन  में  अजय  घोष  के  योगदान  को  देखते  हुए सोवियत संघ की पार्टी की सेन्ट्रल कमेटी ने अजय घोष की मृत्यु पर भेजे गये अपने संवेदना संदेश में कहा था ‘‘अजय कुमार घोष अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के
एक महान नेता थे। उन्होंने माक्र्सवाद-लेनिनवाद के बुनियादी सिद्धान्तों पर चलकर अपने अथक  परिश्रम  से विश्व कम्युनिस्ट  एकता को  सुदृढ़  किया’’।

सशस्त्रा संघर्ष से चुनाव प्रणाली की ओर
इससे पहले 1957 के आम चुनावों में लोकसभा में भी और विधान सभाओं में भी  जन  प्रतिनिधित्व  के  आधार  पर जिस  प्रकार  कम्युनिस्ट  चुनकर  आये उस सत्य ने
यह सिद्ध कर दिया कि औपनिवेशिक देशों में सशस्त्रा संघर्ष ही राष्ट्रीय स्वतंत्राता का
एकमात्रा उपाय  नहीं है। कार्ल माक्र्स ने तो 8  सितम्बर 1872 को ही कहा था कि


‘हम इस बात से इन्कार नहीं करते कि अमरीका और इंग्लैंड जैसे देश हैं जहां का
मजदूर वर्ग शान्तिपूर्ण तरीकों से अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकता है’। 1957 में केरल के चुनाव में स्पष्ट बहुमत प्राप्त करना और कम्युनिस्ट सरकार के स्थापित होने की
घटना  ने  यह सिद्ध  कर दिया।
नतीजे के तौर पर 1958 में, अमृतसर में पार्टी की पांचवी कांग्रेस में अपने देश में  समाजवाद स्थापित  करने  के  लिये  हमने  चुनाव  प्रणाली  को  अपनाया।  इस परिवर्तन पर बोलते हुए अजय घोष ने कहा:     ‘‘जिस बात पर देशभर में बड़े पैमाने पर टिप्पणियां हुई हैं वह पार्टी के विधान की भूमिका में वह घोषणा है जिसमें  कहा गया है कि कम्युनिस्ट पार्टी शान्तिपूर्ण तरीके से सोशलिज्    म प्राप्त करने का  प्रयत्न करेगी  और  सोशलिस्ट  भारत  में  सरकार विरोधियों  तक को  भी  राजनैतिक संगठन बनाने का अधिकार होगा जब तक कि वह देश के संविधान को मानें।’’ अजय घोष  ने आगे कहा कि ‘‘लेकिन यदि शासक वर्ग बहुमत की इच्छाओं को कुचलने के लिये बल प्रयोग करेगा तो बहुमत मूक दर्शक नहीं रहेगा क्योंकि हमारी पार्टी अहिंसा को परमोधर्म  नहीं  मानती  है।’’
दूसरे  देशों  की कम्युनिस्ट  पार्टियों  के  प्रभाव  के  बारे  में  अजय  घोष  ने  बताया कि हरेक देश की कम्युनिस्ट पार्टी अपने देश की परिस्थिति के अनुसार अपनी-अपनी पार्टी  को  चलाने  के  लिये  स्वतंत्रा  है,  लेकिन  कोई  भी  पार्टी  तथाकथित  राष्ट्रीय कम्युनिस्ट  पार्टी  की बात नहीं  कर  सकती।
कम्युनिस्ट  पार्टी  के  विधान  की  भूमिका  में  इन  नये  परिवर्तनों  ने  भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी को पहले के मुकाबले बहुत तेजी से आगे बढ़ने का अवसर  दिया।
1962 के चुनाव में, यद्यपि वह सब देखने के लिये अजय घोष नहीं रहे, परन्तु पार्टी  ने लोकसभा में पहले से भी अधिक 32 सीटें प्राप्त कीं। कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के बाद दूसरे नम्बर की पार्टी बनकर उभर कर सामने आई। पार्टी के प्रसार और प्रभाव को देखकर कांग्रेस पार्टी और  सोशलिस्ट  पार्टी  वाले  ईष्र्या  करने लगे।

विपरीत स्थितियां
1957 में केरल में कम्युनिस्ट सरकार बन तो गई पर कांग्रेस को बरदाशत नहीं हुई। कांग्रेस की तरफ से तरह-तरह के लांछन, आरोप और तिकड़में करी जाने लगीं। दो  साल के बाद 1959 में वह अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई। अजय घोष ने इसको केवल  कांग्रेस  और  कम्युनिस्ट  के  बीच विरोध और टकराव न बताकर प्रजातंात्रिक पद्धति पर आघात और हमारे देश के विधान के  मूलभूत  सिद्धान्तों  पर कुठाराघात बताया। उन्होेने अपने भाषण, लेख और प्रेस सम्मेलनों द्वारा कांग्रेस नेतृत्व को निरस्त्रा


कर दिया और  कटघरे  में  ला खड़ा  किया। देश  की आम जनता और  जनतांत्रिक
शक्तियों की सहानुभूति कम्युनिस्ट पार्टी के साथ थी। केन्द्रीय कांग्रेस सरकार ने  असंवैधानिक तरीके से  केरल की सरकार को बरखास्त कर दिया परन्तु यह उनकी राजनैतिक स्थिति और सदाचार के विपरीत कार्य था। इन्दिरा गांधी उस समय कांग्रेस प्रेसीडेंट  थीं।
चीन की  लाइन को  लेकर पार्टी  में  समय-समय  पर गंभीर  मतभेद  उभर  कर सामने आते  थे। अजय घोष हमेशा ही अपनी बुद्धिमता और चतुराई से सिद्धान्तों के आधार पर इन  मतभेदों  को  सुलझाने  का प्रयत्न  करते थे।  सुनते  हैं  पार्टी  की विजयवाड़ा  में  छठी  कांग्रेस  तक  और  पार्टी  कांग्रेस  में  भी  मतभेद  इतने  बढ़  गये थे   कि पार्टी में फूट पड़ना अवश्यम्भावी हो गया था परन्तु अजय घोष के अन्तिम भाषण  ने ऐसा जादू किया कि उस समय पार्टी दो टुकड़े होने से बच गई। अजय घोष जब तक जीवित रहे  पार्टी  एक रही और  वह एकता के  प्रतीक माने  गये।

सर्वमान्य व्यक्तित्व
पार्टी के बाहर भी लोग अजय घोष का सम्मान करते थे। दूसरे देशों की बिरादराना पार्टियां हों या अपने देश के अन्दर प्रगतिशील तत्व, वह उनकी बात ध्यान से सुनते थे और उन  पर अमल भी करते थे। इसकी सबसे बड़ी मिसाल सितम्बर 1961 में   सरकारी स्तर पर हुआ,  राष्ट्रीय  एकता सम्मेलन है  जिसमें  अजय  घोष  ने  भारत  के बारे में    अपनी गूढ़ समझ का परिचय  दिया। उन्होंने भारत की सारी समस्याओं को
यथोचित  ऐतिहासिक और  वर्ग  व्यवस्था  पर आधारित  बताकर भारत  के  स्वतंत्राता उपरांत विकास के सारे काल क्रम पर प्रकाश डाला। उन्होंने भारतीय समाज के ढांचे  के खास पहलुओं को उजागर किया। सम्मेलन में भाग लेने वाले अजय घोष के इस ओजस्वी  भाषण  से आश्चर्यचकित  रह गये।

गोवा आजाद हुआ
1961 में गोवा की आजादी के लिये संघर्ष पार्टी का एक मुख्य काम था। उसके लिये
एक बहुपार्टी संघर्ष समिति गठित की गई और राष्ट्र को इस विषय पर जागृत करके लामबन्द  किया  गया।  पुर्तगाल  की कम्युनिस्ट  पार्टी  ‘पुर्तगाल  के  एक जिले’  गोवा की आजादी के पक्ष में थी। सोवियत संघ इस संघर्ष में भारत के साथ था, उसने गोवा के लिये सिक्यूरिटी कौंसिल में अपनी वीटो पावर का उपयोग तक भी किया। देशभर से हजारो  रणबांकुरों  के  दस्ते  गोवा  गये  इनमें  सबसे अधिक तादाद  कम्युनिस्टों  की थी।  सैंकड़ों  सत्याग्रही  शहीद  हुए।  स्वाभाविक  है  कि  इसमें  भी  एक बड़ी  तादाद कम्युनिस्टों की थी। 18 दिसम्बर  1961 को अजय घोष की मृत्यु से मात्रा 25 दिन


पूर्व  गोवा  आजाद हुआ।  पुर्तगाल  की  भूमिगत  कम्युनिस्ट  पार्टी  ने  भारत  की
कम्युनिस्ट पार्टी और भारत के सभी लोगों को बधाई भेजी। अजय घोष बेहद खुश हुए।  उनका  एक और  लक्ष्य पूरा  हुआ।

एक लम्बे अध्याय  का अंत
1962  आम चुनाव का वर्ष था। अजय घोष डाॅक्टरों की सलाह के बावजूद पंजाब के चुनावी  दौरे  पर थे।  12 जनवरी को  अचानक उनकी  तबियत  खराब हुई,  उन्हें  दिल्ली लाया गया, परन्तु वह बचाये नहीं जा सके और 24 घंटे के अन्दर ही अपनी बात कहते-कहते चल बसे। अंतिम दर्शनों के लिये लोगों का तांता लग गया। सबसे पहले कांग्रेस प्रेसीडेंट संजीवा रेड्डी पहुंचे और आंखों में आंसू भरे हुए बहुत देर तक
शव के पास खड़े रहे। राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने अपने संदेश में अजय घोष के निधन को सारे देश की क्षति बताया। उपराष्ट्रपति डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अभी कुछ दिन पहले हुए राष्ट्रीय एकता सम्मेलन में अजय घोष के योगदान की सराहना करते हुए  अपना दुख  प्रगट  किया।
इस प्रकार  मात्रा  53 वर्ष  की उम्र  में  वह इतिहास पुरुष  इतिहास बन गया।
अजय घोष बेहद सादे, शर्मीले, मितव्ययी और सोचने के अलावा कुछ भी न करने वाले इन्सान थे। उन्होंने कभी अपने खाने की, आराम की, स्वास्थ्य की परवाह नहीं की। पार्टी का काम ही उनका जीवन था और जीवन समर्पित था पार्टी के लिये और राष्ट्र के उत्थान के लिये। वह बार-बार बीमार हो जाते थे, ठीक होते थे और फिर काम में लग जाते थे। वह कई बार इलाज के लिये मास्को गये। विरोधी लोग कहते थे  वह भारतीय  पार्टी  के  मार्गदर्शन  के  लिये  मास्को  जाता है।  वह लोग  नहीं जानते थे कि बीमार होने पर वह इलाज के लिये मास्को जाते थे और उनका मुख्य उद्देश्य स्वास्थ्य लाभ करना होता था वैसे मास्को जाने में मुझे कभी कुछ भी झिझक नहीं हुई क्योंकि सोवियत संघ के संविधान में ही लिखा है कि ‘सोवियत संघ दुनिया भर के श्रमजीवियों के लिये आश्रय का स्थान है’। और यह एकतरफा नहीं है दूसरे विश्व युद्ध के दिनों में हमने सोवियत संघ की विजय  की कामना की थी और यही नहीं,  हमने  ‘पैसा  फंड  कलेक्शन’  करके उनकी  मदद की थी।  वालंटियर  भेजने  का प्रस्ताव  किया था।  वैसे  सोवियत  संघ  की या रूस  की कम्युनिस्ट  पार्टी  अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन का एक हिस्सा था और है और दुनिया भर की समस्याओं पर आपस  में  विचार  विनिमय करना हमारा  बिरादराना  कार्यक्रम  रहा  है।  हमारा अंतर्राष्ट्रीय  भाई-चारा  हमेशा  कायम रहा है।




अजय    घोष    की     याद     में



शोक लहर
जैसा कि पहले लिखा जा चुका है 13 जनवरी 1962 को अजय घोष की मृत्यु हुई।  राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्राी सभी की ओर से शोक संदेश आये। 16 जनवरी को दिल्ली में एक सर्वदलीय शोक सभा हुई। दिल्ली के मेयर लाला शामनाथ सहित सभी राजनैतिक पार्टियों के नेताओं ने शोक व्यक्त किया और शोक सभा की ओर से एक प्रस्ताव  पारित किया गया।

अजय  भवन
देशभर  में  कई  जगह पार्टी  आॅफि    सों  के  नाम ‘अजय  भवन’  रखे  गये। दिल्ली  में कम्युनिस्ट पार्टी के पहले जनरल  सेक्रेट्री और उस समय के पार्टी के कोषाध्यक्ष एस. वी. घाटे के विशेष प्रयत्नों से 26 अक्टूबर 1969 को उनके ही करकमलों से कोटला मार्ग पर अजय भवन की नींव रखी गई। कामरेड घाटे तो अजय भवन का पूरा बनना नहीं  देख  सके परन्तु  बहुत  जल्दी  1972 के  नववर्ष  दिवस 1  जनवरी को  कामरेड राजेश्वर  राव (1972  में  पार्टी  के  जनरल  सेक्रेट्री)  के  नेतृत्व  में  हम लोगों  ने  अजय भवन  में  प्रवेश  किया। पार्टी  के  इतिहास में  यह एक मील का  पत्थर  था।

अजय की मुखाकृति
बहुत  दिन बाद,  25 साल बाद एक दिन पता चला कि 50 साल पहले 1945 में,  श्री बी. सी. सान्याल, लाहौर के एक मूर्तिकार ने अजय घोष से प्रभावित होकर धातु  की एक मुखाकृति बनाई थी जो अभी तक लाहौर के एक कम्युनिस्ट फै    ज    अहमद फै    ज    (विश्वविख्यात  उर्दू  शायर)  के  घर  में  रखी  हुई  थी।  1995  में  वापिस बी. सी. सान्याल के पास दिल्ली पहुंच गई है। यह घटना फै    ज    की मृत्यु के भी बहुत

दिन बाद हुई जब फ    जै
यह  प्रतिमा  मिली।

अहमद फ    जै

की बेटी को घर को सुधारने संवारने के समय

सान्याल वह महानुभाव  थे  जिन्होंने  लाला  लाजपतराय  के  नाम पर 1929 के कांग्रेस  अधिवेशन  के  स्थान  लाहौर  में  सम्मेलन  स्थल  लाजपतनगर  में  लाला लाजपतराय  की प्रतिमा  बनाई  थी।


लगभग 95 वर्ष की आयु में सान्याल ने पार्टी को यह सूचना दी और पार्टी ने
सहर्ष इस प्रतिमा को स्वीकार किया और तय किया कि अजय की यह प्रतिमा अजय भवन  के  प्रांगण  में  स्थापित  की  जाये।  1996  में  अक्टूबर  क्रांति  की  पूर्व-संध्या
6 नवम्बर को इस प्रतिमा का अनावरण हुआ और वह भी श्री सान्याल के कर कमलों
द्वारा जिन्होंने इसको 50 वर्ष पूर्व अपने हाथों से गढ़ा था। कैसा शुभ अवसर  था यह।

श्रद्धांजली
अजय  घोष  की  मूर्ति  के  अनावरण  के  अवसर   पर सैंकड़ों  साथियों  और
शुभचिन्तकों  के  बीच थे  कलाकार बी.  सी. सान्याल,  तत्कालीन  भारत  सरकार के विदेश मंत्राी इन्दर कुमार गुजराल, जो अविभाजित पंजाब में अजय घोष के साथ काम करते थे, हरकिशन सिंह सुरजीत, जनरल सेक्रेट्री, सी. पी. आई (एम) जो अजय घोष  के पंजाब पार्टी के सेक्रेट्री होने के दिनों में डिप्टी सेेक्रेट्री थे, मुकीम फ    ारूकी जो पंजाब क्या सारे  देश  के  विद्यार्थी  आंदोलन  के  नेता  थे,  ए. बी.  बर्धन,  जनरल  सेक्रेट्री  सी. पी. आई और स्वयं लिट्टो घोष। इन सभी ने अजय घोष की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया और  अजय  घोष  के  साथ  बीते  दिनों  के  अपने-अपने  संस्मरण सुनाये।  सारा वातावरण  अजय  घोष    जिन्दाबाद!  इन्कलाब    जिन्दाबाद!  के  नारों से गूंज  उठा।
मैंने एक दूसरे अवसर  पर बी. सी.  सान्याल को बताया और आज के पाठकों को  भी  बताना  चाहता हूं  कि किस प्रकार  जर्मनी  के  मजदूरों  ने  लेनिन  की प्रतिमा की रक्षा की थी और हिटलर के फ    ासिज्     म के पतन के बाद पुर्नस्थापित किया था।
घटना  यह थी  कि जर्मनी  के  सोवियत विरोधी  युद्ध के  दिनों  में  हथियार  बनाने  के लिये  लोहे  आदि  धातुओं  की  अति  आवश्यकता थी।  जर्मनी  में  एक फैक्ट्री  के व्यवस्थापकों ने हुक्म दिया    कहीं पास ही में लगी हुई लेनिन की मूर्ति को तोड़ कर हथियार बनाने में इस्तेमाल कर लिया जाये। उस फ    ैक्ट्री के मजदूर लेनिन की मूर्ति  को ले आये और रातों-रात उस फ    ैक्ट्री की सीमा के अन्दर एक गड्ढा खोद कर मूर्ती  को छिपा दिया। दूसरे विश्वयुद्ध में 1945 में फ    ासिज्       म की हार के बाद जर्मनी के सोवियत  अधिकृत भाग में पुर्ननिर्माण शुरु हुआ तो मजदूरों ने लेनिन की मूर्ति को सम्मान सहित हज    ारों लोगों के सामने पुर्नस्थापित किया। वैसा ही कुछ अजय घोष  की प्रतिमा  के  साथ  भी  हुआ।
लेनिन और अजय घोष का कोई मुकाबला तो नहीं, पर इत्तफ    ाक है कि उनकी मूर्तियों के साथ ऐसा हुआ। यह भी इत्तफ      ाक ही है कि लेनिन भी छः भाई-बहन थे और अजय घोष भी, एक और भी इत्तफ    ाक है कि यह दोनों नेता ही 53-54 वर्ष की आयु  में  वीरगति को  प्राप्त  हुए।


विश्वास
एक बार पी. पी. एच., झंडेवालान, दिल्ली के आफि     स में पार्टी मुख्यालय के साथियों की एक जी.बी. मीटिंग थी। मैं उन दिनों पार्टी मुख्यालय ब्रांच का मेम्बर था। बात बहुत  छोटी  और  सर्वविदित  है।  अजय  घोष  ने  कहा ‘चमत्कार  इस दुनिया  में  नहीं होते’।  सब जानते हैं  फिर  भी  कभी-कभी  नाहक  इन्तजार करते हैं।

अनुशासन
एक बार इसी प्रकार  की एक जी.बी.  मीटिंग  में आये और  लगभग  एक घंटा  बोले  और  उसके बाद  अचानक कहा ‘साथियों!  आज बस इतना ही,  हम रिर्पोटिंग  चालू रखेंगे, जल्द ही फिर मिलेंगे’। बोलते-बोलते ही उनकी तबीयत खराब होने लगी थी,
शायद आने से पहले भी वह पूर्ण स्वस्थ्य नहीं थे पर अनुशासन के पाबन्द थे। जब मीटिंग  रखी  है  तो  जाना ही  है।

मिलनसार
अजय घोष जहां एक ओर अपने ही विचारों में मग्न रहते थे वहीं वह दूसरों का भी  बहुत  ख्याल  रखते  थे।  मैं  1955-62  के  दिनों  में  पी.पी.  एच के  कनाट सरकस  के
शो  रूम दिल्ली  बुक  सेन्टर  पर काम करता था।  साथ  में  ही  एक कैमिस्ट  नाथ कैमिस्ट    की दुकान है। यही नाथ कैमिस्ट नाम की दुकान आजादी से पहले लाहौर में भी कम्युनिस्ट पार्टी के आफि     स के पास ही थी। अजय घोष वहीं से इन्हें जानते थे। वह अक्सर खुद अपनी दवाई लेने आते थे। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि वह दिल्ली बुक  सेन्टर पर न आये हों। हमारे हालचाल  पूछते, फिर दुकान में कौन है देखते और हलो करते। मुझे याद है वह एक दिन कानपुर के मजदूर नेता, कांग्रेसी,  राजाराम शास्त्राी जो यू.पी. की कांग्रेस सरकार में मंत्राी भी रहे, जिन्होंने कानपुर के मजदूरों में एक साथ काम किया होगा बहुत सहृदयता से मिले और खूब बातें की।

पार्टी  सर्वोपरी
राष्ट्रीय उत्थान, किसान मजदूर का हित अजय घोष के लिये इतना प्रिय था कि वह उसके लिये कुछ भी कर सकते थे। ‘किसान को जमीन’ की समस्या पर उन्हें विनोबा भावे से विचार-विमर्श करना था। वह दिल्ली आये थे साथ में एस.ए. डांगे भी थे।
यह लगभग 1950-51 की बात है, पी-थ्री डौकूमेंट आ चुका था। ठहरने की जगह तो एक ही थी, दरियागंज में दिल्ली पार्टी का कम्यून जो पहले में वाई.डी. शर्मा का रहने  का  मकान  था।  छोटी  बड़ी  मीटिंग  करने  का  स्थान  भी  वही  था।  हमने


(दिल्ली पार्टी) उनको सुनने के लिये, देर शाम को एक मीटिंग रख दी। विनोबा भावे
गांधी निधि (राजघाट) से बागपत-बड़ौत की तरफ पदयात्रा के दौरे पर थे। उन्होंने  अजय घोष को यात्रा के दौरान बात करने के लिये सुबह चार बजे का समय दिया था। अजय घोष समस्याओं के समाधान के लिये कोई भी अवसर  छोड़ना नहीं चाहते थे। उन्हें विनोबा भावे से बात करनी ही थी। मीटिंग शुरू हुई, रात के दस बज गये। डांगे  तो  सोने  के  लिये चले गये।  अजय  अभी  बोलते  जा रहे  थे।  कम्यून  में केवल तीन  कमरे थे। मुझे ध्यान नहीं अजय के सोने के लिए कोई सुविधाजनक स्थान था  और  फिर  सुबह  4 बजे निकलना भी  था।  अजय  घोष  ने  कभी  अपने आराम या स्वास्थ्य  का ध्यान नहीं  रखा।

लिट्टो घोष के सम्पर्क में
लगभग  7 साल पी.पी.एच. में  काम करने के  बाद पार्टी  के  आदेशानुसार  मैं  1962 में  इण्डो-सोवियट  कल्चरल सोसायटी  (दिल्ली)  में  काम करने लगा।  2-3  साल बाद जब इसकस नेशनल कौंसिल का आॅफि    स दिल्ली आया तो मैं वहां काम करने लगा। उसके 4-5 साल बाद 1971  में लिट्टो घोष इसकस की सेक्रेट्री बनीं तो उनके साथ काम करने का  मौका  मिला और  यह सिलसिला लगभग  15 साल चला। इस बीच में कितनी बातें हुई हांेंगी यह कोई भी अन्दाजा लगा सकता है। मैं 2-3 बातों की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना  चाहूँगा।  लिट्टोजी  ने  बताया कि एक बार अजय घोष माॅस्को जा रहे थे, साथ में वह भी थीं। एक महानुभाव ने किसी विषय पर अजय घोष से वार्तालाप शुरू कर दिया। लिट्टो बीच में कुछ और बात बोल पड़ीं  तो अजय घोष ने सब के सामने ही उन्हें झिड़क दिया। वह तन्मयता के साथ उनकी बात सुन रहे थे। अजय घोष बहुत ध्यान से दूसरे सभी लोगों की बात सुनते थे और फिर  किसी निष्कर्ष  पर पहुंचते  थे।
1972 में जब स्वतंत्राता सेनानी पेंशन शुरू हुई तो अजय घोष के एक भाई श्री पी.के. घोष और उनकी माताजी श्रीमती सुधांशु बाला को जो कानपुर में ही रह रहे थे  पेंशन  की  जरूरत  महसूस हुई।  1974 में  भूपेश  गुप्त  एम.पी. के  राज्य सभा  में  प्रश्न उठाने पर बात कुछ आगे बढ़ी। कुछ समस्या थी शायद पेंशन की पहली हकदार पत्नी  होती  है।  पी.के.  घोष  चाहते  थे  कि पेंशन  उनकी  माताजी  को  मिल जाये। इसकस में लिट्टो के साथ काम करने के कारण मेरे पास भी उनके एक-दो पत्रा आये। मेरे  भी  कहने  पर लिट्टो  ने  पेंशन  सुधांशु  बाला  के  नाम कर  दी।
लिट्टो घोष के साथ काम करने के दिनों में एक और दिलचस्प घटना हुई। मुझे
शायद पहली बार ब्लड प्रेशर हुआ और उसका पता चला। डाक्टर से दवाई ले ली,


ठीक महसूस हुआ तो अगले दिन इस्कास आॅफि    स चला  गया। लिट्टो के पूछने पर
मैंने आॅफि    स न आने का कारण बताया। लिट्टो ने मेरी बात पर यकीन नहीं किया। कारण  की अजय घोष को जब ब्लड प्रेशर होता होगा तो ठीक होने में कई दिन लग जाते होंगे।  लिट्टो  का  यही अनुभव  होगा।














हमारी    कुछ    मुख्य    कमजोरियां

अजय  घोष



प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन के खत्म होने के बाद से जो छै साल बीते हैं उनमें हिन्दुस्तान में  अत्यन्त महत्त्व की घटनाएँ घटी हैं। इनमें से सबसे ज्यादा महत्व की घटनाओं  के बारे में  कम्युनिस्ट  पार्टी  के  कार्यक्रम,  चुनाव  घोषणा-पत्रा  और  आम चुनावों  के सिंहावलोकन  में  गौर  किया जा चुका  है।
पिछले आम चुनावों ने यह जाहिर किया कि कांग्रेस पार्टी    अभी कुछ ही साल पहले जनता में जिसकी प्रतिष्ठा और राॅब अद्वितीय थे    बहुमत का समर्थन खो बैठी  थी।  जैसा  कि  अगस्त में  हुई  अपनी बैठक  में  कम्युनिस्ट  पार्टी  के  पोलिटब्यूरो  ने  बताया है,  यह  क्रिया अब भी जारी है और चुनाव के बाद के महीनों में और तेज हो गयी है और यह कि  भारतवासियों  का अपने देश  की आजादी की सुरक्षा  और सुदृढ़ता के लिये आंदोलन, साम्राज्यवादी शिकंजे और सामंतवादी शोषण को पूर्णरूप से खत्म  करने के लिये,  खुशहाल  और  समृद्ध जीवन  के लिये  विकासशील  मानवता के शांति के संघर्ष में अधिकाधिक जुड़ता जा रहा है। एशिया और पेसिफि     क देशों   के शांति सम्मेलन ने जो आम लोगों में असीम उत्साह पैदा किया है, देश के बहुत से हिस्सों में ‘एशिया वीक’ का सफलतापूर्वक मनाना, मात्रा दस दिन के अंदर बम्बई में  शांति  के  लिये  50,000  हस्ताक्षर  इकट्ठा  करना,  मद्रास में विशाल शांति सभा, अगस्त और सितंबर में कैई सूबों में हुए शांति सम्मेलन  जिन्होंने  अंत  में  जाकर जालन्धर में अ. भा. शांति सम्मेलन का रूप लिया    ये सब बातें दिखाती हैं कि शांति आंदोलन की शक्ति और  उसका विस्तार  किस  तरह बढ़  रहा है।
सरकार की नीतियों और तरीकों का विरोध जनता के नये-नये स्तरों और हिस्सों  में  फैल  गया है  जिनमें  खुद  राष्ट्रीय  पूँजीपतियों  के  कुछ  हिस्से  शामिल हैं।
जनता के संघर्षों की व्यापकता और तेजी से बढ़ती जा रही है। हुकूमत करने वाली  कांग्रेस  पार्टी  गहरे  संकट  में  है।  कांग्रेस  के  अंदर  भीतरी  विरोध  और  तेज हो  गये  हैं।


चुनावों  के  बाद की घटनाओं  की समीक्षा  करते हुए  हिन्दुस्तान  की कम्युनिस्ट
पार्टी  के  पोलिटब्यूरो  ने  कहा था  कि,
”पिछले छै महीने में पैदा होनेवाली परिस्थितियाँ इत्तफाकिया नहीं हैं। और न उन्हें  अस्थायी ही कहा जा सकता है। वे जारी रहेंगी और बढ़ती जायेंगी, क्योंकि उनकी गहरी जड़ें  आर्थिक  और  सामाजिक कारणों  में  हैं।“
जो कुछ कहा गया है, उससे यह नतीजा नहीं निकालना चाहिए  कि दुष्मन हार के कगार पर पहुंच गया है या हमारे काम अपेक्षाकृत सरल हैं। बल्कि इसके विपरीत दुष्मन अभी भी बहुत ताकतवर है और उसका बेहद असर है। वह अभी भी बहुत
शक्तिशाली है  और  उसमें  पैंतरेबाजी  करने की असीम क्षमता  है।  उसकी क्षमता  न केवल  कांग्रेस  पार्टी  की  अपनी शक्ति में  है  बल्कि  देश  के  बहुत  से  हिस्सों  मे सामंतवादी और साम्प्रदायवादी शक्तियों के प्रभाव के रूप में भी है। चुनाव के बाद पैदा हुए संवैधानिक भ्रम में और चुनाव प्रक्रिया की संभावनाओं के बारे में है और नई-नई बनी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के रूप में सुधारवादी बुर्जुआजी पार्टी के विरोधी  संगठन  बनाने  के  भ्रम  में  है।
अतः हमारी पार्टी के सामने जबरदस्त काम हैं। पोलिटब्यूरो ने बताया है कि
ये  काम हैंः
”जन-आंदोलन  को  व्यापक बनाना,  फौरी  मांगे  जीतने में जनता की मदद कर
एक अनवरत  जन-आंदोलन का  निर्माण करना,  जनता के जन-संगठनों को खड़े  करना, और इन कामों को पूरा करने के दौरान जनता के बेहतरीन बेटों और बेटियों  को कम्युनिस्ट पार्टी में  लाना।“
पोलिटब्यूरो ने बताया है कि आज पार्टी के सामने जो कठिनाइयाँ हैं, वे खास
ढंग की हैं। वे जन-आंदोलन के विकास से, पार्टी के बढ़े हुए असर से ताल्लुक रखती हैं।  इसलिए उनका  ताल्लुक  उन बढ़ती  हुई  जिम्मेदारियों  से है  जिन्हें  पार्टी  को  पूरा  करना है।
आज जन-आंदोलन के बढ़ने के साथ, राजनैतिक चेतना के नये स्तरों, नये क्षेत्रों   में फैलने के साथ, और हमारी पार्टी का असर बेहद बढ़ने के साथ, हमारे कत्र्तव्य और हमारी जिम्मेदारियाँ कई गुना बढ़ गयी हैं। हमें जनता को फौरी मांगें हासिल करने के लिए संघर्षों में उसका नेतृत्व करना है। हमें मजदूरों, किसानों, खेत-मजदूरों और साथ ही नौजवानों, विद्यार्थियों, òियों, मध्यमवर्गीय नौकरी पेशा लोगों, मिòियों और कारीगरों  का  संगठन  करना है।  सांस्कृतिक  मोर्चे  पर भी  हमें संघर्ष छेड़ना  है।  पार्लियामेंट और विधानसभाओं में हमें जनता के हितों के लिए लड़ना है। हमें बहुत से दैनिक और साप्ताहिक अखबार निकालने हैं। मौजूदा राष्ट्रीय और  अन्तर्राष्ट्रीय


मसलों पर अपना साहित्य निकालना  है। हमें सरकार और स्थानीय अधिकारियों से
बात करने  के  लिये  एक संयुक्त  मोर्चा  बनाने  के  लिये  दूसरी  पार्टियों  के  साथ बात-चीत करनी है। हमें बोर्डों और म्युनिसपैलिटियों के चुनावों में हिस्सा लेना है।  हमें समाज  के हर स्तर और हिस्से में काम करना है और उनसे संपर्क कायम करना है ताकि हिन्दुस्तानी जनता के बुनियादी हितों, उसके जनवादी अधिकारों और उसके राष्ट्रीय स्वाधीनता के हितों को ध्यान में रखते हुए हम उनकी मांगें तै कर सकें और उनके लिए लड़ सकें। बेकारों और अकाल-पीड़ितों के लिए हमें रिलीफ के काम का संगठन  करना है।  हमें  एक जबरदस्त शांति  आंदोलन  खड़ा  करना है।  हर क्षेत्रा  में  पार्टी कमेटियों को इस तमाम काम को एक सूत्रा में बांधना, इसका संचालन करना और  इसमें  मदद देना  है।
यह कहना अत्युक्ति न होगी कि आज समाज  के हर स्तर के ऐसे व्यक्ति, जो अपनी जनता  के  साथ  कदम मिला कर चल रहे  हैं,  पथ-प्रदर्शन  और  सहायता के लिए कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ देखते हैं। ऐसे क्षेत्रों में भी जहां कम्युनिस्ट पार्टी की कोई कमेटी नहीं है लोग जानते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी एक ऐसी पार्टी है जो गरीबों  के  लिए लड़ती  है,  आम लोगों  के  लिए लड़ती  है।  वे  हमारे  पास आते  हैं  कि हम उनका  संगठन  करें,  उन्हें  बतायें  कि वे  क्या करें।
इन नयी जिम्मेदारियों के एक अंश को भी पूरा करने के लिए, इन बेहद कामों  के एक हिस्से को भी अंजाम देने के लिए, पार्टी को कार्यकत्र्ताओं की जरूरत है, आज की अपेक्षा  अनगिनत  पार्टी  कार्यकत्र्ताओं  की जरूरत  है।
और  यहां  पर यह बात याद रखनी  चाहिये  कि पार्टी  अपने सदस्यों  की सिर्फ
संख्या से ही  मजबूत नहीं  होती,  बल्कि वह  मजबूत होती  है  खास तौर  से उनकी
योग्यता  से,  पार्टी  के  प्रति  उनकी  वफादारी  से,  विचारधारात्मक  शिक्षा  में  उनकी कुशलता  से। हमें प्रभावशाली आंदोलनकारियों की जरूरत है; पार्टी के मुखपत्रों के लिए पत्राकारों की, शिक्षकों की, जनता और उसके आंदोलनों के संगठनकत्र्ताओं की जरूरत,  हमें  ऐसे कार्यकत्र्ताओं  की  जरूरत  है  जो  विचारधारात्मक  रूप  से विकसित और राजनीतिक रूप से दक्ष हों, जिनमें पहलकदमी और नेतृत्व करने की क्षमता हो,  जो इस योग्य हों कि हर क्षेत्रा में उपयुक्त रूप से पार्टी की सही नीति को लागू कर सकें और आम जनता के राजनैतिक और संगठनात्मक स्तर को बराबर ऊपर उठा सकें।
ऐसे कार्यकत्र्ता हमारे पास बहुत ही थोड़े हैं। और जो हैं वे काम के बोझ से दबे हुए  हैं।  इसका नतीजा यह है  कि हम उन असंख्य कत्र्तव्यों में से जो  हमारे  सामने हैं  बहुतों  को  हाथ  में  नहीं  ले  पाते  या नहीं  पूरा  कर पाते  हैं।


यह समझ  लेना  अत्यंत जरूरी  है  कि आज हम ऐसी स्थिति  में  पहुँच  गये हैं
जबकि  जनता के आंदोलनों की सफलता अभिन्न रूप से इस बात से जुड़ी हुई है,  बल्कि उसी पर निर्भर भी है कि योजनानुसार और संगठित रूप से कम्यूनिस्ट पार्टी  का कितना विकास होता है, जिन क्षेत्रों में वह है वहाँ वह कितनी और मजबूत होती है  और  नये क्षेत्रों  में  जहाँ  वह  नहीं  है  वहाँ  वह किस  हद तक फैलती  है।
इसके बिना,  जन-आंदोलनों में कोई खास  मजबूती  नहीं लायी  जा सकती, मौजूदा  आंदोलनों  का  उचित  पथ-प्रदर्शन  भी  नहीं  हो  सकता  और  न उनकी कामयाबियों को ही  जन-संगठन  का ठोस  रूप  दिया जा सकता है।
आज संगठन  सबसे अधिक राजनीतिक  महत्व  की चीज बन गया है।
आज हमें  जिस  चीज की सब से ज्यादा  जरूरत  है  वह है  एक मजबूत पार्टी,
ऐसी पार्टी जिसकी सदस्यता लगातार बढ़ रही हो, जिसमें निस्वार्थ रूप से लड़नेवाले कार्यकत्र्ता बहुत बड़ी संख्या में हों, जिस का अनुशासन तगड़ा हो, जिसकी राजनीति प्रबल हो। ऐसी पार्टी जिसकी जड़ें मजबूती से आम जनता में जमी हों, जो बहुमुखी कार्रवाइयों के जरिये आम जनता के साथ हजारों सूत्रों से बंधी हों, ऐसी पार्टी जिसकी मिलों  और  कारखानों  में,  गाँवोें  और  बस्तियों  में  हमारी  जनता के  हर हिस्से  में,  जीती-जागती  और  सक्रिय  इकाइयाँ  हों।
इन इकाइयों को इस तरह काम करना चाहिये कि जिस जनता में वे काम करें वह उन्हंे अपने जीवन के हर क्षेत्रा का नेता माने। हर प्रांत और हर क्षेत्रा में, संघर्ष  के हर मोर्चे पर बिना काफी बड़े, काफी मजबूत और काफी आगे बढ़े हुए पार्टी मेम्बरों  के  दल के  अस्तित्व  के  आम  जनता का नेतृत्व  हासिल करना असंभव  है।  हमारी अधिकांश  मौजूदा  कइिनाइयां  इसी चीज के  अभाव  के  कारण हैं।
मौजूदा स्थिति का परिचय  इसी से मिल सकता है कि मद्रास राज्य में जहाँ कि आम चुनावों में हमें 26 लाख वोट मिले    और जहाँ अगर हम ज्यादा जगहों से लड़ते  तो और ज्यादा वोट मिल सकते थे    वहां भी हमारी पार्टी के सदस्यों की संख्या कुल मिले  वोटों  के  एक फीसदी  से भी  कहीं  कम है।
ऐसी ही हालत दूसरे राज्यों में है। और यह सदस्यता भी जो है ठीक से संगठित नहीं है, और विचारधारात्मक और राजनीतिक रूप से विकसित तो उसका और भी  छोटा  अंश  है।
पार्टी के सामने यह एक सबसे बड़ी समस्या है। जैसा कि पोलिटब्यूरो ने जोर देकर  कहा है, ‘संगठन पहले से कहीं ज्यादा आज एक मुख्य राजनीतिक महत्व की चीज बन गया है।  खुद  जन-आंदोलन  के विकास की रफ्तार इसी पर निर्भर  है।    ’ हमारे  अधिकांश  साथी  इसे  अभी  साफ-साफ  नहीं  समझते।  बहुत  से,  हमारी मौजूदा कठिनाइयों को उसी तरह देखते हैं जैसे वे पुरानी कठिनाइयांे को देखा करते
थे। पहले जब भी हमारे काम में कठिनाइयाँ खड़ी होती थीं, जब भी हमें पीछे हटना पड़ता था, हम उतनी तेजी से नहीं बढ़ पाते थे जितनी तेजी से बढ़ना चाहते थे तो हम उसका जवाब  फौरी  राजनीतिक नारों  और  संघर्ष  के  रूपों  में  ढूँढते  थे।  नतीजा
यह होता था कि सही नारों और संघर्ष के सही स्वरूपों की वजह से कुछ थोड़ी-सी  प्रगति होती थी, लेकिन बुनियादी कमजोरी, खुद पार्टी की कमजोरी, पहले ही की तरह बनी रहती थी।  जो  प्रगति होती  भी  थी  उसे  सुदृढ़  नहीं  किया जा सकता था।
लेकिन, आज कठिनाइयां दूसरी तरह की हैं। मुख्य रूप से और सबसे ज्यादा वे हमारी संगठनात्मक कमजोरियों की वजह से हैं। वे पोलिटब्यूरो के प्रस्ताव में बताये गये सही फौरी नारों  और  सही कार्यनीति  के  बावजूद  उठ  रही हैं।
इसलिए, खुद  संगठन के  सवाल को  पार्टी  के  सामने,  सब से बड़ा  राजनीतिक सवाल  समझकर  हल करना चाहिये।
इसके लिए सब से पहले इस बात की जरूरत है कि पार्टी संगठन  के बारे में   सैद्धांतिक समझ को साफ किया जाय और जो गलत विचार और धारणाएं अब तक फैली  हुई  रही हैं  उन्हें  छोड़  दिया जाय।
अब तक यह गलत धारणा रही है    यद्यपि कभी ऐसा साफ-साफ कहा नहीं गया है    कि संगठन, अर्थात् पार्टी संगठन आर्थिक और राजनीतिक संघर्षों की उपज है।  अर्थात्  अगर हम सही  नारे  दे  दें,  और  सही संघर्ष  चलायें  तो  पार्टी  आगे  बढ़ेगी,  करीब-करीब  अपने-आप  ही।
इसके साथ  ही  इसी तरह की  गलत६धारणा  है  कि ”आंदोलन  के  बढ़ने  के साथ-साथ“  और  उसके फलस्वरूप पार्टी  बढ़ेगी।
लोगों की समझ में यह नहीं आया है कि ‘आंदोलन’  का विकास केवल पार्टी  के नेतृत्व में ही सही ढंग से और सही दिशा में हो सकता है। और नेतृत्व का यह काम भी तभी हो सकता है जबकि खुद पार्टी का विकास हो। दूसरे शब्दों में, इसका अर्थ हुआ कि सच्चे क्रांतिकारी आंदोलन का विकास बहुत हद तक पार्टी के विकास पर निर्भर  करता है,  और  उसके  बिना आंदोलन  खुद  बैठ  जाता  है।
एक दूसरी धारणा यह है कि पार्टी मजदूरों, किसानों आदि के जन-संगठनों को बनाने से बढ़ती है। हमारा खुद का इतिहास दिखाता है कि यह धारणा कितनी गलत है।  अनेक बार हमने  जन-संगठन  बनाये,  लेकिन हम उनका  विस्तार  न कर सके। अधिकांश  क्षेत्रों  में  दमन के  मुकाबले  में  हम उन्हें  कायम तक न रख सके क्योंकि संगठनों  की बुनियादी  इकाइयों  में  कम्युनिस्ट  पार्टी  के  कार्यकत्र्ताओं  का तत्व काफी बढ़ा,  काफी  दृढ़  और  काफी  विकसित नहीं  था।

एक और धारणा यह है कि साम्राज्य-विरोधी आम चेतना का विकास  जो एक उपनिवेशी देश में करीब-करीब  अपने-आप होता है    कम्युनिस्ट पार्टी के विकास के लिए खुद एक काफी आधार है, और अगर पार्टी इस चेतना को और गहरा बनाये, अगर वह जनता के  सामने सब से ज्यादा  जंगजू  साम्राज्य-विरोधी  पार्टी  के  रूप  में   आये, तो इससे ही पार्टी का विकास हो जायेगा। यह नहीं महसूस किया जाता कि कम्युनिस्ट पार्टी, सिर्फ साम्राज्य-विरोधी और राष्ट्रीय क्रांतिकारी चेतना के आधार पर ही नहीं बढ़ सकती, बल्कि उसे और आगे बढ़ाकर, मजदूर वर्ग और बढ़ी हुई जनता को  एक खास  तरह  की  चेतना  देकर,  माक्र्सवादी-लेनिनवादी  चेतना,  समाजवादी चेतना देकर ही, बढ़ सकती है। और इसके लिए जरूरत होती है पूँजीवादी सिद्धांतों और विचारों से घोर सैद्धांतिक  संघर्ष की और माक्र्स, एंगेल्स, लेनिन और स्तालिन के  सर्विजयी  विचारों  के  आम जनता में  प्रचार  की।
पार्टी के बारे में बहुत सी गलत धारणाएँ सामने आयी  हैं। इसकी वजह से यह ख्याल पैदा हो गया है कि पार्टी का एकमात्रा काम फौरी मसलों पर आंदोलन करना और  हड़तालों  और  प्रदर्शनों  का नेतृत्व  करना है।
इस  ख्याल का संगठनात्मक  नतीजा यह  होता  है  कि  पार्टी  का रोजमर्रा  का करीब-करीब पूरा काम ‘होल-टाइमर’ (पूरा समय देनेवाले साथी) करते हैं और पार्टी  के  अधिकांश  सदस्यों  के  पास, सिवाय उस समय  के  जब कि कोई  बड़े  जन-संघर्ष
या बड़े  आंदोलन  न चलें  कोई  काम नहीं  रहता है।
इसकी वजह  से  एक तरफ  तो  नौकरशाहियत  बढ़ती  है  और  दूसरी  तरफ संगठनात्मक ढिलाई पैदा होती है। इसकी वजह से कार्यकत्र्ताओं में जड़ता आती है  और उनका विकास रुक जाता है। इसकी वजह से खुद पार्टी का विकास रुक जाता है।
पार्टी के कत्र्तव्यों और भूमिका के बारे में एकदम  गलत धारणाएँ फैली हुई हैं। माक्र्सवाद-लेनिनवाद  के  आधार  पर राजनीतिक शिक्षा  देने,  ठोस  रूपसे सरकार का भंडाफोड़  करने;  पांच  राष्ट्रोंके  बीच  शांति-संधिकी  अपीलके  आम जनता में  प्रचार करने;  वर्तमान  समस्याओं  पर  आम जनता के लिए साहित्य तैयार करने; पार्टी के अखबारों की बिक्री बढ़ाने; सांस्कृतिक, शिक्षा संबंधी, खेल-कूद संबंधी और इसी तरह की दूसरी संस्थाओं और संगठनों में काम करने और उनका निर्माण करने, यहाँ तक कि जन-संगठनों का और स्वयं पार्टी का निर्माण करने के कामों को बहुत से साथी संघर्ष नहीं मानते, बल्कि कुछ ऐसा वैसा ही ”काम“ समझते हैं, जो क्रांतिकारी नहीं है।
इन गलत विचारों का òोत कहाँ है? उनकी जड़ें कहाँ हैं? बुनियादी तौर से वे स्वतः  स्फूर्तंता  के  सिद्धांत की पूजा  करने से,  वर्ग  संघर्ष  की संकुचित,  सीमित और अमाक्र्सवादी धारणा से पैदा होते हैं। यह संकीर्णता नयी नहीं है। पहले भी यह रही है।
अगर  पिछले  जमाने  के  संघर्षों  की  हम मोटे  तौर  से  समीक्षा  करें  तो  हमें निम्नलिखित चित्रा मिलेगा। दुनिया के दूसरे देशों की तरह हमारे देश में भी जो संघर्ष  हुए  उसके  तीन पहलू,  तीन मोर्चे  थे    आर्थिक,  राजनीतिक और  विचारधारात्मक। आर्थिक  मोर्चे  पर, अपने लड़ाकू  वर्ग-संगठनों  और  कम्युनिस्ट  पार्टी  के  नेतृत्व
में  मजदूर  वर्ग  और  किसानों  ने  असंख्य लड़ाइयाँ  लड़ी  हैं।  इनमें  से कुछ  में  हिस्सा लेने  वालों  की  संख्या लाखों  थी।  निर्मम  आतंक  के  मुकाबले  में  उन्होंने  बहादुरी, पहलकदमी और त्याग की क्षमता का प्रदर्शन किया। इन संघर्षों के परिणाम-स्वरूप महत्वपूर्ण मांगें और रियायतें हासिल की गयीं और बहुत से क्षेत्रों में जन-संगठन खड़े  किये   गये।
राजनीतिक मोर्चे  पर, बावजूद  इसके कि मजदूर  वर्ग  ने  बहुत  से राजनीतिक संघर्ष  चलाये, बावजूद उन  संघर्षों के जो बुनियादी भूमि सुधारों और राजनीतिक अधिकारों के लिए छिड़े, बावजूद इस बात के कि कम्युनिस्ट पार्टी का असर बढ़ता रहा, जो प्रगति हुई वह बहुत कम है। सीधी ब्रिटिश हुकूमत के जमाने में, खानों और उद्योगों के बहुत से मुख्य क्षेत्रों में मजदूर वर्ग तक पूँजीपतियों और मध्यमवर्गियों के असर में था, और सिर्फ कांग्रेस के नेतृत्व में  चलनेवाले  राष्ट्रीय  आंदोलन  के  सीधे असर  में  आकर ही  वह राजनीतिक कार्रवाइयों  के  लिए आगे  उठता  था।
लेकिन  हमारी  कमजोरी,  हमारे  नेतृत्व  में  चलनेवाले  आंदोलन  की  कमजोरी सबसे नुमाया तौर पर जिस मोर्चंे पर साफ थी वह था विचारधारात्मक मोर्चा। सिर्फ
यह नहीं कि मजदूर वर्ग में माक्र्सवादी लेनिनवादी विचारधारा का प्रवेश नहीं कराया गया था,  बल्कि  राष्ट्रीय  आजादी  को  अधिकांश  मजदूर  वर्ग  उसी रूप  में  समझता था    जिसमें कि पूँजीवादी  उसे  समझाना चाहते  थे    अर्थात्  यह कि उसका उद्देश्य सिर्फ  ब्रिटेन  की सीधी  हुकूमत  को  खत्म  करना है।
राष्ट्रीय आजादी  के तत्व के संबंध में, यहाँ तक कि जनतंत्रा के ऐसे  बुनियादी सवाल तक पर कि जनवादी राज्य का ढांचा कैसा हो आम राजनीतिक शिक्षा का कोई  कार्य  हमने  नहीं  किया।
हमने न सिर्फ राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के नेतृत्व की धोखेबाज नीति का पर्दाफाश नहीं किया बल्कि, अनेक बार ‘संयुक्त राष्ट्रीय मोर्चे’ के नाम पर हमने उसकी तारीफें कीं। गांधीवाद के घातक  सिद्धांतों के  खिलाफ  हमने  कोई  खास संघर्ष  नहीं  किया।
यह बात मान सी ली गयी थी कि जनता में किया जानेवाला राजनीतिक प्रचार और  आंदोलन  आम जनतंत्रावादी  ढांचे  के  बाहर  नहीं  जाना  चाहिये  और  यह कि माक्र्सवादी-लेनिनवादी विचार तो सिर्फ उन्हीं के लिये हैं जो पार्टी में शामिल हों या उसके  हमदर्द  बनें।  असल में  तो  इन को  भी  हमने  पर्याप्त  शिक्षा  नहीं  दी।
लेनिन  और  स्तालिन की  बहुत-सी  रचनाओं  का हिन्दुस्तानी  भाषाओं  में  हमने अनुवाद  किया।  लेकिन  उन के  साथ  ऐसी कोई  प्रस्तावना  नहीं  दी  जिससे  कि वे  मजदूरों  या किसानों  की  समझ  में  आ सकतीं।
हिन्दुस्तान  में  हमने  जो  साहित्य  तैयार  किया वह महज आंदोलनकारी  ढंग  का था। हिन्दुस्तान की समस्याओं पर माक्र्सवादी दृष्टिकोण से लिखा गया साहित्य तैयार करने की  कोई  कोशिश  नहीं  की गयी।
चालू घटनाओं का जो मूल्यांकन किया गया जनवादी दृष्टिकोण से और केवल मात्रा  जनवादी दृष्टिकोण  से,  मजदूरवर्ग  के  अंतिम उद्देश्यों  की दृष्टि  से उनका  क्या महत्व  है  इसे नहीं  बताया गया।
देश के ट्रेड यूनियन और किसान आंदोलन का इतिहास, उन संघर्षों का इतिहास जिन्हें खुद हमने चलाया था, हमने तैयार नहीं किया। इन संघर्षों से हमने कोई सबक नहीं  निकाले  और  न उनके  सबकों  से  अपने कार्यकत्र्ताओं  को  शिक्षित  किया। मेहनतकश  जनता के  दिमाग  से संघर्षों के सच्चे सबकों को मिटाने के पूँजीवादियों के प्रयत्न का विचारधारात्मक रूप से हमने  मुकाबला  नहीं  किया।
इस  सब का  नतीजा यह हुआ  कि सिर्फ  मजदूर  वर्ग  ही  नहीं,  बल्कि  हमारे बहुत-से पार्टी सदस्य तक अपने में माक्र्सवादी-लेनिनवादी चेतना न पैदा कर सके। अनिवार्यतः,  आर्थिक  और  राजनीतिक मोर्चों  के  हमारे  कामों  को  भी  धक्का  लगा। क्योंकि, सिर्फ इतना ही जरूरी नहीं है कि संघर्ष को सभी मोर्चों पर एक साथ चलाया जाय, या वर्ग संघर्ष के तीनों मोर्चे परस्पर संबंधित हों, बल्कि यह भी जरूरी  है कि उनके इस परस्पर संबंध में विचारधारा का स्थान मुख्य  हो।
संगठनात्मक  कमजोरी समेत आज हमारी  करीब-करीब  सभी  कमजोरियाँ  इसी कमी की  वजह  से हैं  कि विचारधारा  की ओर  हमने  ध्यान नहीं  दिया,  चेतना  और संगठन की  भूमिका  के  महत्व  पर हमने  जोर  नहीं  दिया।
जैसा कि कामरेड  स्तालिन  ने  सिखाया है :
”यह बात ध्रुव सत्य की तरह मान ली जानी चाहिए कि राज्य या पार्टी की किसी
शाखा के कार्यकत्र्ताओं का जितना ही ऊँचा राजनीतिक स्तर और माक्र्सवादी-लेनिनवादी ज्ञान  होगा,  उतना  ही  अच्छा  और  ज्यादा  सफल उनका  कार्य  होगा  और  उतना  ही ज्यादा  कारगर उस कार्य  का नतीजा होगा।  और  इसी के  उल्टे,  जितना ही  नीचा कार्यकत्र्ताओं का राजनीतिक स्तर होगा, और जितना ही कम उनका माक्र्सवाद-लेनिनवाद का ज्ञान होगा, उतनी ही ज्यादा इस बात की संभावना होगी कि काम में विघ्न पड़े और  वह असफल  हो,  कार्यक    त्र्ता  खुद  छिछले  और  काम के  घिरसू  पुर्जे बन जायें,  वे  एकदम  नीची  सतह  पर गिर जायें।“
सही राजनीतिक नारे, संयुक्त मोर्चे की सही कार्य-नीति, संघर्ष के सही रूप,  ये सभी जरूरी  हैं।  लेकिन ये  सिर्फ  ऊपरी कमेटियों  के  लिये ही  नहीं  बल्कि पार्टी  की हर इकाई  के  लिए  जरूरी  हैं।  खुद  इसके लिए  जरूरी  है  कि  पूरी  पार्टी  का विचारधारात्मक और राजनीतिक  विकास हो।
इसके अलावा,  सही राजनीतिक नारे,  संयुक्त  मोर्चे  की  सही कार्यनीति  और संघर्ष के सही रूप हमारे आम असर को तो जरूर बढ़ाते हैं और आम जनता से हमारे संबंध  कायम करते हैं  लेकिन  वे  खुद-ब-खुद  पार्टी  का विकास नहीं  कर देते।
पार्टी विकसित होती है कार्यकत्र्ताओं का विचारधारात्मक और राजनीतिक  स्तर ऊपर उठाने  से,  पार्टी  विकसित होती  है  मजदूर  वर्ग,  खेत,  मजदूरों,  गरीब किसानों में और क्रांतिकारी बुद्धिजीवी वर्ग में, जो हमारे देश के बहुत ही ज्यादा महत्व के हिस्से हैं, माक्र्सवादी-लेनिनवादी चेतना फैलाने से; पार्टी विकसित होती है माक्र्सवाद-लेनिनवाद की भावना में आम जनता को राजनीतिक शिक्षा देने से; पार्टी विकसित होती है हर तरह की पूंजीवादी विचारधाराओं के खिलाफ तीक्ष्ण संघर्ष चलाने से; पार्टी विकसित होती है, सभी मोर्चों पर और समाज  के सभी  स्तरों  में  संघर्ष  चलाने  से।
शासक वर्ग  और  उसके  वकील उपदेश  देते  हैं  कि देश  का  कल्याण  उनकी पंचवर्षीय  योजना  और  कम्युनिटी  योजनाओं  में  है।  वे  ढिंढोरा  पीटते  हैं  कि उनकी विदेश-नीति स्वतंत्राता और सजीव तटस्थता की है। वे वोट के बक्से की उपयोगिता के बारे में भ्रम पैदा करते हैं। वे जनता के दिमाग से मजदूरों और किसानों के पिछले संघर्षो की यादगार को मिटा देने की  कोशिश  करते हैं।
उनमें  से बहुत  से सोवियत संघ  और  जनवादी चीन की निंदा  के  समवेत-गान में स्वर मिलाते हैं और कहते हैं कि वे ऐसी ”तानाशाहियां“ हैं जहां पूंजीवादी देशों  के मुकाबले में ”कतई आजादी नहीं है“। विभिन्न भाषा बोलनेवालों के बीच वे झगड़े  के बीज बोते हैं और भाषावार प्रान्त के जनवादी आंदोलन को फूट के रास्ते पर ले जाते  हैं।
इन सब कामों में उन्हें उन दक्षिणपक्षी सोशलिस्टों से मदद मिलती है जिन्होंने  माक्र्सवाद का जानना छोड़ दिया है और जो आम जनता को भटकाने और धोखा देने  के  लिए पूंजीवादियों  के  पुराने  सड़े-गले  विचारों  को  नये रूप  में  रख रहे  हैं।
इसलिये विचारधारात्मक  संघर्ष  की आज पहले से कहीं  ज्यादा  जरूरत  है।
लेकिन  पार्टी की  मजबूती और उसके विकास का सवाल सिर्फ विचारधारात्मक


सवाल नहीं है। यह सिर्फ अपने कार्यकत्र्ताओं को विचारधारात्मक रूप से लैस करने
और आम जनता के अंदर विचारधारात्मक संघर्ष चलाने का ही सवाल नहीं है। यह सवाल संगठन का भी है, पार्टी के तरीकों और पार्टी के उस अनुशासन को पुनः लागू  करने का भी है, जो कि पार्टी-कार्यक्रम के स्वीकार होने के पहले के काल में, बहुत ही  कमजोर हो  गया था।
विचारधारा के महत्व के सवाल की ही तरह संगठन के सवाल पर भी, सभी स्तरों  पर गलत,  माक्र्सवाद-विरोधी  और  सर्वहारा-विरोधी  विचार  फैले  हुए  हैं,  वे  विचार जिनका लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘एक कदम आगे, तो दो कमद पीछे’ में खंडन किया था।
बहुत  से साथी  पार्टी-तरीकों  को  यांत्रिक  होना  या नौकरशाहियत  समझते हैं।   पार्टी  के  अंदर  की  जनवादिता के  संबंध  में  बहुत  सी इकाइयों  में  अराजकतावादी धारणाएँ  व्यक्त होती  हैं और अक्सर बड़े ही हानिकर रूप से प्रकट होती हैं। बहुत से साथी अपनी निजी राय को अपनी  इकाई  की  राय से,  यहाँ  तक कि ऊपर की कमेटी  की राय से भी  ज्यादा  महत्वपूर्ण  समझते हैं,  और  अपने मतभेदों  को  अपनी इकाई के बाहर खुल कर जाहिर करते हैं। बहुत से साथी अपनी इकाइयों में सिर्फ इसलिए  नहीं बोलते हैं कि दूसरों को अपने मत का बनायें, इसलिए  नहीं कि वे भी  सीखें और दूसरे के मत को समझें और स्वीकार करें। कुछ साथी, अगर उनकी इकाई उनके मत को स्वीकार नहीं करती तो, यह नतीजा  निकालते हैं कि इकाई ही गलत है और बहुमत  के  फैसले  को  पूरा  करने में  पूरी  लगन से सहयोग नहीं  देते।
बहुत से क्षेत्रों में या तो ऊँची कमेटियाँ नीचे की कमेटियों के सामने रिपोर्ट ही नहीं करतीं, या सिर्फ जनरल बाडी की बैठकों में ही रिपोर्ट करती हैं। इस तरह जनरल बाडी  की बैठकें  पार्टी  की बुनियादी  इकाइयों  की जगह ले  लेती  हैं।  आंदोलनों  या संघर्षों की समय से और ठीक से समीक्षा नहीं की जाती, उनसे सबक  नहीं निकाले जाते और  एक-एक सवाल पर पार्टी  की  समझ  एक नहीं  बनायी जाती।
कुछ इकाइयों में पुराने पुर्वाग्रहों की भावना, जो पार्टी के अंदरूनी संघर्ष के जमाने की विरासत है, पार्टी के एक होकर काम करने के रास्ते में बाधक होती है। ये पूर्वाग्रह  संगठनात्मक  सवालों  के  तय  करने में  दृष्टिकोण  पर असर  डालते  हैं।  इस से काम की क्वालिटी  खराब होती  है।
अक्सर काम में योजना  का अभाव  दिखायी  देता  है।  विभिन्न  मोर्चों के  कार्यों  में सामंजस्य नहीं लाया जा सकता। कुछ थोड़े से प्रमुख साथियों पर जरूरत से ज्यादा काम लाद देने की प्रवृत्ति दिखायी पड़ती है। बजाय कमेटियों का नेतृत्व कायम करने के साथियों का व्यक्तिगत  नेतृत्व  कायम करने की प्रवृत्ति  दिखायी  पड़ती  है।
इस  तरह से  भी  बहुत  से  काम हो  जाते  हैं  लेकिन  आम कार्यकत्र्ताओं  की
पहलकदमी  का विकास हुए  बगैर;  पार्टी  की इकाइयों  के  स्थानीय  आम जनता की सच्ची  नेता बने बगैर; पार्टी के कार्यकत्र्ताओं की ट्रेनिंग और उनका विकास हुए बगैर, जो कि पार्टी के तेजी से बढ़ने और बढ़कर एक जन-शक्ति बन जाने के लिए जरूरी है।
इसलिए  पार्टी  का विकास करने के  साथ  ही  साथ  हमें  पार्टी  की संगठनात्मक मजबूती का  काम,  अर्थात्  काम की संगठनात्मक  जाँच का,  संगठनात्मक  शुद्धि  का काम अपने हाथ  में  लेना  होगा।
इन तमाम चीजों  के  बारे  में  अब तक हमने  बहुत  ही  कम काम किया है।  इसीलिए हमारे  सामने ये  कठिनाइयाँ  हैं।  इसे न देखने  पर यह होता  है  कि जल्दी के  रास्ते  ढूँढ़ने  की कोशिश  की  जाती है।  कुछ  लोग  तर्क करते हैं कि अगर किसी न किसी तरह नेतृत्व दूसरी पार्टियों के व्यक्तियों के हाथ में छोड़कर भी असेम्बलियों में दूसरी पार्टियों के साथ हम संयुक्त मोर्चा बना लें और अगर किसी न किसी तरह इस या उस कार्यनीति से हम कुछ ‘जोरदार कार्रवाइयों’ को संगठित कर लें तो हमारे सामने की समस्याएँ  हल हो  जायेंगी।  वे  यह नहीं  देखते  कि ये  ‘हल’  हल  नहीं  हैं,   बल्कि  उनसे खुद-पार्टी ही खत्म हो जायगी। दूसरे लोग, यद्यपि वे संगठन की  बातें करते हैं, लेकिन संगठन को वे संकीर्ण ‘व्यवहारवादी’ दृष्टिकोण से समझते हैं। पार्टी  की संगठनात्मक और राजनीतिक समस्याओं को पुराने ढंग से, एकमात्रा या मुख्यतया
‘संघर्ष’  के  रूपों’  की  समस्या के  रूप  में  समझते हैं  और  असल में,  संगठन  की
कमजोरी  के  नाम पर निष्क्रियता की  कार्य-नीति  का समर्थन  करते हैं।
उनकी  मानसिक कल्पनाएँ,  उनका  बुनियादी  दृष्टिकोण  पुराना  ही  है।  इसलिए संगठन की  बात करते हुए  भी  वे  कोई  ठोस  बात नहीं  कर पाते।
इन तमाम रुझानों  से लड़ना  होगा  और  उन्हें  जड़-मूल  से खत्म  करना होगा।  अपनी अमर कृतियों ‘क्या करें’ और ‘एक कदम आगे तो दो कदम पीछे’ में लेनिन ने जो सिखाया है, पार्टी की भूमिका और महत्व के बारे में स्तालिन ने जो सिखाया है,  उसे  तमाम पार्टी  की  चेतना  का एक हिस्सा  बना दिया  जाना चाहिये।
इसके आधार  पर, सोवियत संघ  की कम्युनिस्ट  पार्टी (बोल्शेविक)  के इतिहास के  आधार  पर,  कामरेड  माओ-त्से-तुंग  और  लिउ  शाओ  ची  की  रचनाओं  तथा बिरादराना पार्टियों के दस्तावेजों के आधार  पर, खुद  अपने आंदोलन  के सबकों के आधार पर, हमें अपनी पार्टी के अंदर तमाम पार्टी को फिर से शिक्षित करने का काम, पार्टी के काम करने के ढंग और संगठन के बारे में सभी तरह के पंूजीवादी और निम्न पूंजीवादी  विचारों  को  खत्म  करने का काम और  फिर इसी  के  अनुसार अपने काम करने के  तरीके और  ढंग  को  बदलने का काम शुरु  करना है।


आम जनता में काम को तेज करने के साथ-साथ इस सब को भी अधिक से
अधिक तेजी से करना होगा, जैसा कि पोलिटब्यूरो के प्रस्ताव में जोर देकर बताया गया है
फौरी  मांगों  के  लिए संघर्ष  करना बेहद  महत्व  का काम हो  गया है  और  उसे जनता के  बीच हमारी  तमाम कार्रवाइयों  की धुरी  बन जाना चाहिए।
हमें ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये कि पार्टी की तमाम इकाइयां सिर्फ अपने फौरी  कत्र्तव्यों पर ही न बहस करें, बल्कि आम राजनीतिक प्रश्नों पर भी, जैसे कि शांति आंदोलन, शासक वर्ग की पैंतरेबाजियाँ, दूसरी पार्टियों के नारे और कार्यनीतियां, भाषा  और भाषावार प्रांत के प्रश्न, संयुक्त  मोर्चे  के  प्रश्न, आदि पर भी  बहस करें।
पार्टी के सभी स्तरों पर नीचे से ऊपर की कमेटियों को और ऊपर से नीचे की कमेटियों  को  रिपोर्टें  देने  का काम हमें  फिर शुरु  करना है।
हमें  देखना  है  कि पार्टी  की प्रत्येक  इकाई  अपने काम की नियमित रूप  से समीक्षा करती है, हर साथी को उचित काम देती है, तथा आलोचना और आत्म-आलोचना के  जरिये अपने काम  करने के  ढंग  को  सुधारती  है।
बिना योजना के काम करने के मौजूदा ढंग को हमें खत्म कर देना है, अनुशासन के मौजूदा ढीलेपन को खत्म करना है, पार्टी-तरीकों के प्रति अनादर  के वर्तमान भाव  को  खत्म  करना  है।
हमारे अखबारों को सिर्फ आंदोलनकारी ही नहीं होना चाहिये, बल्कि जनता के सामने उपस्थित सभी समस्याओं पर माक्र्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण से उसे शिक्षित करना चाहिये।
बड़े पैमाने पर और हर क्षेत्रा में पार्टी शिक्षा के लिए हमें कदम उठाने चाहियें, शिक्षा को पार्टी की सभी इकाइयों के लिए एक मुख्य कार्य बना दिया जाना चाहिये और  इसके लिए  उपयुक्त साहित्य  तैयार  करना चाहिये।
कार्यकत्र्ताओं को बिना हिचक ज्यादा जिम्मेदारी के पदों पर तरक्की देने की, जो  कार्यकत्र्ता  जिस  काम को  सबसे अच्छी  तरह कर सके उसे  उस काम के  लिए चुनने  की,  हर इकाई  द्वारा  अपने हर सदस्य के  काम जांच  करने की,  उसके काम को सुधारने की, और जो सुधारने के अयोग्य साबित हों उन्हें प्रमुख पदों से हटाने की पूरी  नीति  हमें  अपनानी  चाहिये।
हम पूरी पार्टी को, तमाम इकाइयों को सक्रिय बनायें और जो सक्रिय न हो सकंे
या दिये  गये रोजमर्रा  के  कामों  को  करने के  इन्कार  करें  उन्हंे  हटा  दें।
जो  कुछ  कहा गया है  उसके यह माने  नहीं  हैं  कि हमने  कोई  सफलताएँ नहीं हासिल की  हैं।


पार्टी आज जैसी है    हमारे देश की एक प्रमुख शक्ति    वैसी न होती अगर उसका
इतिहास जन-संघर्षों  के  बहादुराना  नेतृत्व  का,  भयंकर  कठिनाइयों  में  अदम्य साहस का,  जनता  के  हितों  के  दृढ़  समर्थन  का इतिहास न होता।
अगर उसके कार्यकत्र्ता बहुत से क्षेत्रों में आम जनता के साथ खूब हिलमिल न गये होते,  अगर अपने निस्वार्थ  और  जी तोड़  काम से उन्होंने  जनता का प्रेम  और उसकी प्रशंसा हासिल न कर ली होती, तो पार्टी, सरकार के भयंकर प्रहार का सामना न कर पाती, उसे कुचलने का जो प्रयत्न किया गया था उसे विफल न कर पाती। देश की कोई भी दूसरी पार्टी इस बात का दावा नहीं कर सकती कि उसके पास
ऐसे कार्यकत्र्ता हैं जैसे कि हमारी पार्टी में। हमारा अनुशासन, संगठन, हमारी लगन,
हर पार्टी  के  लिए ईष्र्या  की चीजें  हैं।
लेकिन  हम यह  बात नहीं भुला  सकते  कि अपने देश  की  पूंजीवादी  और निम्नपूंजीवादी  पार्टियों  के  मुकाबले  में  श्रेष्ठताके  बावजूद,  जब हम अपने काम  की तुलना सोवियत संघ और चीन की शानदार कम्युनिस्ट पार्टियों के काम से करते हैं    तो  हम अपने को  बहुत  ही  पीछे  पाते  हैं।  फ्रांस  और  इटली  की कम्युनिस्ट  पार्टियों  की सफलता के  मुकाबले  हम अभी  बहुत  ही  पीछे  हैं।
और न हम इस बात की उपेक्षा कर सकते हैं कि हिन्दुस्तान में आर्थिक और राजनीतिक संकट तेजी से बढ़ रहा है। आज हमारी जिम्मेदारियां और हमारे कत्र्तव्य  पहले से ज्यादा भारी और जटिल हैं और भविष्य में वे और भी जटिल और और भी  भारी होे जायेंगे।
हम इस बात की भी उपेक्षा नहीं कर सकते, जैसा कि केन्द्रीय कमेटी की चुनाव समीक्षा में जोर देकर बताया  गया है कि यद्यपि हाल में हम काफी आगे बढ़े हैं, फिर भी मजदूर वर्ग में, खेत-मजदूरों में और गरीब किसानों में    उन वर्गों में जो कि एक सर्वहारा पार्टी का चट्टानी आधार होते हैं    हमारी स्थिति अभी बहुत ही ज्यादा कमजोर है। देश के ज्यादा हिस्सों में अभी भी हमें दृढ़ स्थान बनाना है। जिन प्रांतों में हम एक मुख्य ताकत बन गये हैं वहां भी हमारा असली जोर कुछ ही जिलों में सीमित है।
इसलिये ढिलाई  का मौका  नहीं  है,  पीठ टेकने  या सुस्ताने  की जगह नहीं  है।
इसके विपरीत, हर दिशा में, हर क्षेत्रा में, हर मोर्चे पर हमारी कोशिशों और हमारे काम को सौगुना बढ़ जाना चाहिये और इसके लिए पार्टी की तमाम कमजोरियों को दूर  करना चाहिये  और  आलोचना  और  आत्म-आलोचना  की आग में  उसे  फिर  से तपना चाहिये।
सिर्फ इसी तरह से हम उन जिम्मेदारियों को पूरा कर सकेंगे जो हमारे सामने हैं।
(7  नवम्बर  1952)














‘फार    ए    लास्टिंग    पीस     फार    ए
पीपुल्स    डिमोक्रेसी’    के    संपादकीय    से



”हिन्दुस्तानी  कम्युनिस्ट  पार्टी  ने  अपनी खामियों  की  चुस्त  और  सिद्धान्तपूर्ण आलोचना की है। ‘फार ए लास्टिंग पीस, फाॅर ए पीपुल्स डिमोक्रेसी’ नामक पत्रा में  प्रकाशित ”हमारी कुछ मुख्य कमजोरिया“ शीर्षक लेख में हिन्दुस्तानी कम्युनिस्ट पार्टी  के  जनरल  सेक्रेट्री  का. अजय  घोष  ने हिन्दुस्तानी कम्युनिस्ट पार्टी की राजनीतिक, सांगठनिक तथा विचारधारात्मक कमजोरियों को  दृढ़तापूर्वक  दरसाया है।  लेख  को समाप्त करते हुए का. घोष ने लिखा है    ”हमारी कोशिशें और हमारे काम को सौगुना बढ़ जाना चाहिए और इसके लिए पार्टी की तमाम कमजोरियों को दूर करना चाहिए और  आलोचना  और  आत्म-आलोचना  की आग में  उसे  फिर से तपना चाहिए।“
”कम्युनिस्ट तथा वर्कर पार्टियों का  फर्ज है कि वे अपने तमाम काम को शांति, जनवादी  अधिकार,  राष्ट्रीय  स्वाधीनता,  समाजवाद के  लिए संघर्ष  के  अपने महान कत्र्तव्य की सतह पर उठायें। आजकल सारे पूंजीवादी तथा उपनिवेशी देशों का विशाल जन  समूह,  अपने संघर्ष  में  सहायता और निर्देश पाने की  उम्मीद से  कम्युनिस्ट पार्टियो की ओर आकर्षित हो रहा है। पार्टियाँ बगैर आलोचना और आत्म-आलोचना के,  बगैर  अपने काम की  खामियों  और  गलतियों  के  खिलाफ  दृढ़तापूर्वक  तथा समझौताहीन  संघर्ष  के  कम्युनिस्ट  या वर्कर  पार्टियां  अपने  ऐतिहासिक  कत्र्तव्य को नहीं निभा सकतीं।  कम्युनिस्ट तथा वर्कर पार्टियों में नेतृत्व का स्थान  रखनेवाली समितियों तथा पत्रों का  फर्ज है कि वे तमाम पार्टी कार्यकत्र्ताओं और कम्युनिस्टों को अपनी खामियों के प्रति निर्ममता तथा समझौताहीनता बरतने की भावना में शिक्षित करंे, व्यापक  मेहनतकश जन समूह  को  शांति,  जनवाद तथा  समाजवाद के  दुश्मनों  के प्रति क्रांतिकारी समझौताहीनता की भावना में शिक्षित करें। कम्युनिस्ट तथा वर्कर पार्टियों  की कार्यविधि  की  सफलता की गारंटी  इसी में  है।“
(21  नवम्बर,  1952)






संदर्भ  सूची



1 .  अजय  घोषः  भगत  सिंह  एण्ड हिज़  कामरेडस्,  1979,  पृष्ठ  27।
2 .  साबरमती आश्रमवासी श्री सी.के. नायर की 17 जनवरी 1930 की अप्रकाशित हस्तलिखित  दैनिक  डायरी।
3 .  आनन्द  गुप्तः  इंडिया  एण्ड लेनिन,  1960,  पृष्ठ  42।
4. परिकल्पना  प्रकाशनः  शहीदे  आज़म की  जेल नोटबुक,  2003,  पृष्ठ  191।
5 ,   6, 7.  महात्मा  गांधी  कलेक्टेड  वकर्स,  जिल्द  45,  पृष्ठ  200।
8 .  उपर्युक्त,  पृष्ठ  359-61।
9 .  दिल्ली  का  राजनैतिक  इतिहास,  1935,  पृष्ठ  120।
10.  जगमोहन  सिंह,  चमन लालः  भगत  सिंह  और  उनके  साथियों  के  दस्तावेज,
1997,  पृष्ठ  336।





अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट नेता
अजय घोष की मुखाकृति
शिल्पकारः जवाहरलाल नेहरू
पुरस्कार प्राप्तकर्ता
रूसी कलाकार ईगुनी उचितिच